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सम्बन्धी ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मका क्षयोपशम सर्वाङ्ग होता है, तो भी आङ्गोपाल नामकर्मके उदयसे जहाँ पुद्गलप्रच्यरूप जिस द्रव्येन्द्रियकी रचना होती है वहींके आत्मप्रदेशोंमें उस इन्द्रियके कार्य करनेकी क्षमता रहती है।
उपकरणका अर्थ हे उपकारका प्रयोजक साधन । यह मी बाह्य एवं आभ्यन्तरके भेदसे दो प्रकारका है। नेत्र इन्द्रियमें कृष्ण एवं शुक्ल भण्डल आभ्यन्तर उपकरण है और अक्षिपत्र आदि बास उपारण हैं : नित्ति और पकाये दोनों ही द्रव्येन्द्रियके अन्तर्गत हैं ।
ब्धि और उपयोग भाव इन्द्रियके भेद हैं । मतिज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण और अचक्षदर्शनावरणका क्षयोपशम होकर जो आत्मा में ज्ञान और दर्शनरूप शक्ति उत्पन्न होती है, वह लब्धि इन्द्रिय है। यह आत्माके समस्त प्रदेशोंमें पाई जाती है। क्योंकि क्षयोपशम सर्वात होता है लब्धि, नित्ति और उपकरण इन तीनोंके होनेपर जो विषयों में प्रवृत्ति होती है वह उपयोगेन्द्रिय है। वस्तुतः उपयोग ज्ञानशक्तिके व्यापारका नाम है। प्रत्येक इन्द्रियमें ज्ञानके हेतु निम्नलिखित चार बातें हैं :
(१) इन्द्रियाकार पुद्गलोंकी रचना । (२) इन्द्रियको ग्राहकशक्ति । (8) इन्द्रियको ज्ञानशक्ति। (४) इन्द्रियको ज्ञानशक्तिका व्यापार ।
उदाहरणार्थ यों कहा जा सकता है कि चक्षुका आकार हुए विना रूपदर्शन नहीं होता। उपकरणके अभाव में चक्षुका आकार ठोक रहनेपर भी ग्राहकशक्तिके न होनेसे रूप-दर्शन नहीं होता। ज्ञानशक्तिके अभावमें आकार और ग्राहक शक्तिके होते हुए भी तत्काल मृत व्यक्तिको रूप-दर्शन नहीं होता है । अतएव पदार्थोके जानने के हेतु इन्द्रियोंका शक्ति सम्पन्न होना आवश्यक है । इन्द्रियप्राप्तिका क्रम ___ इन्द्रियों का विकास सभी प्राणियोंमें समान नहीं होता है। जिस प्राणीके शरीरमें जितनी इन्द्रियोंका अधिष्ठान आकार सृजन होता है, वह प्राणी उतनी ही इन्द्रियोंवाला माना जाता है। आकार-वैषम्यका आधार लब्धिका विकास है । जिस जीवके जितनी ज्ञानशक्तियाँ-लब्धि-इन्द्रियाँ निरावरण विकसित होती हैं, उस जीवके उत्तनी हो इन्द्रियोंकी आकृतियां निर्मित होती हैं। जो जीव जिस जातिमें उत्पन्न होता है, उसके उस जातिके अनुकूल इन्द्रिया
तीर्थकर महावीर और उनकी देशमा : ४१५