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यह इन्द्रियद्वारा ज्ञात रूप रस आदिका विशेष पर्यालोचन करता है । इन्द्रियोंकी गति पदार्थ तक है, पर मनकी गति पदार्थ और इन्द्रिय दोनों तक है । मनके दो भेद हैं: - ( १ ) द्रव्यमन और (२) भावमन ।
हृदयस्थानमें अष्टपांखुड़ीके कमलके आकाररूप पुद्गलोंको रचनाविशेष द्रव्यमन है" । संकल्प-विकल्पात्मक परिणाम तथा विचार, चिन्तन आदिरूप ज्ञानकी अवस्था विशेष भावमन है । द्रव्यमन पुद्गल विपाकी नामकर्मके उदयसे होता है । रूपादि युक्त होनेके कारण द्रव्यमन पुद्गलद्रव्यकी पर्याय है।
भावमन ज्ञानस्वरूप है। यह वीर्यान्तराय और नोइन्द्रियावरण कर्मके दायकी अपेक्षा आत्मविशुद्धि है। सब्धि और उपयोगलक्षणयुक्त है। इन्द्रियोंका समस्त व्यापार मनके अधीन है । मन जिस-जिस इन्द्रियकी सहायता करता है, उसी उसी इन्द्रियके द्वारा क्रमशः ज्ञान और क्रिया होती है ।
मनको कथंचित् अवस्थायी और कथंचित् अनवस्थायी माना जाता है । द्रव्याधिकनयसे अवस्थायी और पर्यायार्थिकनय से अनवस्थाया है । जन्मसे भरण पर्यन्त जीवका क्षयोपशमरूप सामान्य भावमन तथा कमलाकार द्रव्यमन ज्योंरहते हैं, अतः अवस्थायी हैं और प्रत्येक उपयोगके साथ विवक्षित आत्मप्रदेशों में ही भावमनकी निर्वृत्ति होती है तथा उस द्रव्यमनको मनपना प्राप्त होता है, जो उपयोगके अनन्तर एक समयमें हो नष्ट हो जाता है, अतः वे दोनों अनवस्थायी हैं ।
शरीर और मनका सम्बन्ध
शरीरपर मनका प्रभाव पड़ता है। आत्मा अरूपी है, इसे हम देख नहीं सकते । शरीरमें आत्माकी क्रियाओंकी अभिव्यक्ति होती है । उदाहरणार्थ आत्माको विद्युत् और शरीरको बस्व मान सकते हैं। ज्ञानशक्ति आत्माका गुण है और उसके साधन शरीरके अवयव हैं ।
तथ्य यह है कि संसारी आत्माओंकी शक्तिका उपयोग पुद्गलोंकी सहायता के बिना नहीं होता । हमारा मानस चिन्तनमें प्रवृत्त होता है और उसे पौगलिक मनके द्वारा पुद्गलोंको ग्रहण करना ही पड़ता है, अन्यथा उसकी प्रवृत्ति नहीं होती । हमारे चिन्तनमें जिस प्रकार के इष्ट्र अनिष्ट भाव आते हैं,
१. हिदि होदि हुमणं वियसिय अनुच्छदारबिंद वा
अंगोवं गुदयादो मणवगण संघदो नियमा । गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४४२. २. वीर्यान्तराय मनोइन्द्रियावरणक्षयोपशमापेक्षयात्मनो विशुद्धिर्भावमनः ।
--- सवार्थसिद्धि २१११ पृ० १७०.
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ४१७
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