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क्षणिक है । यतः प्रत्येक सत् उत्पाद-व्यय- श्रीव्यात्मक है' । अतएव आकाश भी उत्पाद, व्यय और धीव्यरूप है, उसमें भी प्रतिक्षण उत्पाद, व्ययकी धारा चल रही है । पर इस धाराके चलनेपर भी आकाशका स्वभाव कभी नष्ट नहीं होता । वस्तु के प्रतिक्षण परिवर्तनशील होते हुए भी उसमें एक प्रवाहित हवी है । इसे ही द्रव्यरूप कहते हैं और परिवर्तनको पर्यायरूप । अतः वस्तु या पदार्थ द्रव्यपर्यायात्मक है ।
उत्पाद, व्यय और धीव्य पर्यायोंमें होते हैं और पर्यायें द्रव्यमें स्थित हैं । तथ्य यह है कि किसी भाव अर्थात् सत्यका अत्यन्त नाश नहीं होता और किसी अभाव अर्थात् असत् का उत्पाद नहीं होता। सभी पदार्थ अपने गुण और पर्यायरूपसे उत्पाद, व्यय और घोष्य युक्त रहते हैं । विश्वमें जितने सत् हैं, वे त्रैकालिक सत् हैं। उनको संख्या में कभी परिवर्तन नहीं होता; पर उनके गुण और पर्यायोंमें परिवर्तन अवश्य होता है, इसका कोई अपवाद नहीं हो सकता है |
प्रत्येक सत् परिणामशील होनेसे उत्पाद, व्यय और धौव्य युक्त है । वह पूर्व पर्यायको छोड़कर उत्तर पर्याय धारण करता है। उसके पूर्व पर्यायोंके व्यय और उत्तर पर्यायोंके उत्पादको यह धारा अनादि-अनन्त है, कभी भी विच्छिन नहीं होती। चेतन अथवा अचेतन सभी प्रकार के सत् उत्पाद, व्यय और प्रोव्यकी परम्परासे युक्त हैं । यह त्रिलक्षण पदार्थका मौलिक धर्म है, अतः उसे प्रतिक्षण परिणमन करना ही चाहिए। ये परिणमन कभी सदृश होते हैं और कभी विसदृश तथा ये कभी एक दूसरे के निमित्तसे भी प्रभावित होते हैं। उत्पाद, व्यय और श्रव्यको परिणमन-परम्परा कभी भी समाप्त नहीं होती । अगणित और अनन्त परिवर्तन होनेपर भी वस्तुकी सत्ता कभी नष्ट नहीं होती और न कभी उसका मौलिक द्रव्य ही नष्ट होता है। उसका गुणपर्यायात्मक स्वरूप बना रहता है ।
साधारणतः गुण नित्य होते है और पर्याय अनित्य । अतः द्रव्यको नित्यानित्य कहा जाता है । उत्पाद, व्यय और श्रीव्यात्मक सत् ही द्रव्य है । सत् के सम्बन्धमें चार मान्यताएँ प्रचलित हैं:१. सत् एक और नित्य है 1
१. उत्पादव्ययश्रीव्ययुक्तं सत्-तत्त्वार्थसून ५/३०. २. उप्पादट्ठदिभंगा विज्जेते पज्जएसु पञ्जाथा । दवे हि संति वियदं तम्हा दव्यं हयदि सम्बं ॥
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— प्रवचनसार - गापा १०१.
वीकर महावीर और उनकी देशना : ३२१