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२. सत् नाना और उत्पाद-व्यय-विशरणशील है ।
३. सर और असत् दोनों हैं तथा सत् कारणद्रव्योंकी अपेक्षा नित्य और कार्यद्रव्योंकी अपेक्षा अनित्य है।
४. सत्के वेतन और अवेतन भो ६ हैं। त्रि है और अगन परिणामी नित्य है। __ तीर्थंकर महावीरने सत् या पदार्थके सम्बन्धमें प्रचलित उक्त धारणाओंकी समीक्षा करते हुए पदार्थ या सत्को न तो सर्वथा नित्य कहा और न सर्वथा अनित्य ही। कारणद्रव्यको सर्वश्रा नित्य माननेसे अर्थक्रियाकारित्वका विरोध आयगा और वस्तु निष्क्रिय सिद्ध हो जायगी । कार्यद्रथ्यकी अपेक्षा सर्वथा अनित्य माननेसे भी वस्तु-उच्छेदका प्रसंग आयेगा । अतएव अपनी जातिका त्याग किये विना नवीन पर्यायको प्राप्ति उत्पाद है, पूर्व पर्यायका त्याग व्यय है और अनादि पारिणामिक स्वभावरूपसे अन्वय बना रहना प्रौव्य है। ये उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य सत् या द्रवपके निज रूप हैं।
तथ्य यह है कि प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है और उसमें वह परिवर्तन प्रतिसमय होता है। उदाहरणार्थ एक नन्हें शिशुको लिया जा सकता है। इस शिशुमें प्रशिक्षण परिवर्तन हो रहा है, अतः कुछ समय बाद वह युवा होता है
और तदनन्तर बृद्ध । शंशवसे युवकत्व और युबकत्वसे वृद्धत्वको प्राप्ति एकाएक नहीं हो जाती है । ये दोनों अवस्थाएं प्रतिक्षण होनेवाले सूक्ष्म परिवर्तनका हो परिणाम हैं । यह यहाँ ध्यातव्य है कि प्रतिक्षण होनेवाला यह परिवर्तन इतना सुक्ष्म होता है कि हम उसे देखने में असमर्थ हैं। पर इस परिवर्तनके होनेपर भी उस शिशु में एकरूपता बनी रहती है, जिसके फलस्वरूप वह अपनी युवा और वृद्ध अवस्थामै भी पहचाना जाता है। यदि विलक्षणात्मक न मानकर द्रव्यको केवल नित्य मानें, तो उसमें कूटस्थ नित्यता आ जायगी और किसी भी प्रकारका परिणमन नहीं हो सकेगा। यदि अनित्य मान लिया जाये तो आत्माके सर्वथा क्षणिक होनेसे पूर्व में ज्ञात किये गये पदार्थोका स्मरण आदि व्यापार भी नहीं बन सकेगा।
द्रव्यमें गुण नद होते हैं और पर्याय उत्पाद-विनाशशील | अतः उत्पादव्ययप्रौव्यात्मकका अभिप्राय गुणपर्यायात्मकसे है। द्रव्यके इन तीनों लक्षणों से एकके कहनेसे शेष दो लक्षण स्वतः व्यक्त हो जाते हैं, क्योंकि जो सत् है, वह उत्पाद, व्यय और ध्रौव्ययुक्त है और गुण-पर्यायका आश्रय भी है तथा जो गुणपर्यायात्मक है, वह सत् है और उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्यसे संयुक्त है । ३२२ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा