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इसके आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार, और उपस्थापना ये नो भेद है। गुरुसे अपने प्रमादको निवेदन करना आलोचना; किये गये अपराधक प्रति मेरा दोष मिथ्या हा ऐसा निवेदन प्रतिक्रमण आलोचना और प्रतिक्रमण दानोंका एक साथ करना तदुभय; अन्य पात्र और उपकरण आदिके मिल जाने पर उनका त्याग करना विवेक; मनमें अशुभ या अशुद्ध विचारोके आनेपर नियत समय तक कायोत्सर्ग करना व्युत्सगं है। दोषविशेष के हो जानेपर उसके परिहारके लिये अनशन आदि करना तप है । किसा विशेष दोषके हानेपर उस दोषके परिहारार्थ दीक्षा का छेद करना छंद है; विशिष्ट अपराधके होनेपर संघसे पृथक करना परिहार हैं; और बड़े दोषके लगने पर उस दोषके परिहारहेतु पूर्ण दोक्षाका छेद करके पुन: दीक्षा देना उपस्थापना है।
२. विनय--पूज्य पुरुषों के प्रति आदरभाव प्रकट करना विनयतप है। इसके चार भेद है। माक्षापयोगी ज्ञान प्राप्त करना, उसका अभ्यास रखना और किये गये अभ्यासका स्मरण रखना झानविनय है; सम्यग्दर्शनका शंकादि दाषांस रहित पालन करना दर्शनविनय; सामायिक आदि यथायोग्य चारित्रके पालन करने में चित्तका समाधान रखना चारित्रविनय है। और आचार्य आदिके प्रति "नमोस्तु" आदि प्रकट करना उपचारविनय है ।
३. वैश्यावृत्त्य-शरोर आदिक द्वारा सेवा-शुश्रूषा करना वैय्यावृस्य है। जिनको वय्यावृत्ति का जाती है, वे दश प्रकारके हैं।
१. आचार्य-जिनके पास जाकर मुनि व्रताचरण करते हैं। २. उपाध्याय-जिनके पास मुनि-गण शास्त्राभ्यास करते है। ३. तपस्वी-बो बहुत व्रत-उपवास करते है। ४. शैक्ष्य-जो श्रुतका अभ्यास करते हैं। ५. ग्लान-रोग आदिसे जिनका शरीर क्लान्त हो । ६. गण-स्थविरोंकी संतसि । ७. कुल-दीक्षा देने वाले आचार्यकी शिष्यपरम्परा ।
८. संघ-ऋषि, यति, मुनि और बनमारके भेदसे चार प्रकारके साधुका समूह ।
९. साधु-बहुत समयसे दोक्षित मुनि । १०, मनोज्ञ-जिनका उपदेश लोकमान्य हो अथवा लोकमें पूज्य हो ।
४. स्वाध्याय-आलस्यको त्यागकर ज्ञानका अध्ययन करना स्वाध्याय है । स्वाध्यायके पांच भेद हैं।
तोषकर महागीर और धनकी देशना : ५३७