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१. वाचना-प्रन्थ, अर्थ तथा दोनोंका निर्दोषरीतिसे पाठ करना । २. पृच्छना-शंकाको दूर करने या विशेष निर्णयको पुच्छा करना । ३. अनुप्रेक्षा--अधीत शास्त्रका अभ्यास करना, पुनः पुनः विचार करना ।
४. आम्नाप-जो पाठ पढ़ा है उसका शुद्धतापूर्वक पुनः पुनः उच्चारण करना।
५. धर्मोपदेश-धर्मकथा या धर्मचर्चा करना।
५. व्युत्सर्ग- शरीर आदिमें अहंकार और ममकार आदिका त्याग करना व्युत्सर्ग है । इसके दो भेद हैं-(१) बाह्यव्युत्सर्ग और (२) आभ्यान्यर व्युत्सर्ग । भवन, खेत, घन, धान्य आदि पृथक भूत पदार्थ के प्रति ममताका त्याग करना बामव्युत्सर्ग और आत्माके काधादि परिणामाका त्याग करना आभ्यन्तर व्युत्सर्ग है।
६. ध्यान-चञ्चल मनको एकाग्र करने के लिए किसी एक विषय में स्थित करना ध्यान है। उत्तम ध्यान तो उत्तम संहननके धारक मनुष्यको प्राप्त होता है । यह अपनी चित्तवृतिको सभी ओरसे रोककर आत्मस्वरूपमें अवस्थित करता है। जब आत्मा समस्त श भाशभ संकल्प-विकल्पोंको छोड़, निर्विकल्प समाधिमें लीन हो जाती है, तो समस्त कमों की शृङ्खला टूट जाती है । ध्यानका अर्थ भी यही है कि समस्त चिन्ताओं, संकल्प-विकल्पोंको रोककर मनको स्थिर करना; आत्मस्वरूपका चिन्तन करते हुए पुद्गल द्रष्यसे आत्माको भिन्न विचारना और आत्मस्वरूपमें स्थिर होना।।
ध्यान करनेसे मन, वचन और शरीरको शुद्धि होती है। मनशुद्धिके विना शरीरको कष्ट देना व्यर्थ है, जिसका मन स्थिर होकर आत्मामें लीन हो जाता है वह परमात्मपदको अवश्य प्राप्त कर लेता है। मनको स्थिर करनेके लिए ध्यान ही एक साधन है । ध्यानके भेद
ध्यानके चार भेद हैं-१. आतध्यान, २, रौद्रध्यान ३. धर्म ध्यान और ४. शुक्ल ध्यान । इन मेंसे प्रथम दो ध्यान पापासवका कारण होनेसे अप्रशस्त हैं और उत्तरवर्ती दो ध्यान कर्म नष्ट करने में समर्थ होनेके कारण प्रशस्त हैं। यासंध्यान : स्वरूप और भेव __ ऋतका अर्थ दुःख है। जिसके होनेमें दुःखका उद्वग या तीव्रता निमित्त है, वह आत्तध्यान है । आर्सध्यानके चार भेद हैं--१. अनिष्टसंयोगजन्य आध्यान, २. इष्टवियोगजन्य आर्तव्यान, ३. वेदनाजन्य आसंध्यान और ४. निदानज ५३८ : तीर्थकर महावीर और उनकी भाषार्य परम्परा