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सप-विषयोंसे मनको दूर करनेके हेतु एवं राग-द्वेषपर विजय प्राप्त करनेके हेतु जिन-जिन उपायों द्वारा शरीर, इन्द्रिय और मनको तपाया जाता है अर्थात् इनपर विजय प्राप्त की जाती है वे सभी उपाय तप हैं। तपके दो भेद हैं ... . ए र असार महावी अपेक्षा होनेके कारण जो दूसरोंको दिखाई पड़ते हैं, वे बाबतप हैं । बाह्यतप आभ्यन्तर तपको पुष्टिमें कारण हैं। जिन तपोंमें मानसिक क्रियाओंकी प्रधानता हो, जो अन्यको दिखलाई न पड़ें वे आभ्यन्तर तप हैं ।
बाह्यतप
अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन और कायक्लेश ये छह बाह्य तप हैं।
१. अनशन-संयमकी पुष्टि, रागका उच्छेद, कर्मनाश और ध्यानसिद्धिके लिये भोजनका त्याग करना अनशन तप है। इसमें ख्याति, पूजा आदि फलप्राप्तिकी आकांक्षा नहीं रहती।
२. अवमोदयं-संयमको जागृत रखने, दोषोंके प्रशम करने, सन्तोष एवं स्वाध्यायको सिद्ध करनेके लिये भूखसे कम खाना अवमौदर्य तप है। मुनिका उत्कृष्ट ग्रास बत्तीस ग्रास है, अतः इससे अल्प आहार करना अवमोदयं है।
३. वृत्तिपरिसंख्यान-आहारके लिये जाते समय घर, गली आदिका नियम ग्रहण करना वृत्तिपरिसंख्यान तप है। यह चित्तवृतिपर विजय प्राप्त करने और आसक्तिको घटानेके लिये धारण किया जाता है ।
४. रसपरित्याग-इन्द्रियों और निद्रा पर विजयप्राप्तार्थ घी, दुग्ध, दधि, तेल, मीठा और नमकका यथायोग्य त्याग करना रसपरित्याग तप है।
५. विविक्तशम्यासन-ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय, ध्यान आदिको सिद्धि हेतु एकान्त स्थानमें शयन करना तथा आसन लगाना विविक्तशय्यासन तप है।
६. कायक्लेश-कष्ट सहन करनेके अभ्यासके हेतु विलासभावनाको दूर करने तथा धर्मकी प्रभावनाके लिये ग्रीष्म ऋतमें पर्वतशिलापर, शीत ऋतुमें खुले मैदानमें और वर्षा ऋतुमें वृक्षके नीचे ध्यान लगाना कायक्लेश है ।
माम्यन्तर तप-आभ्यन्तर तपके प्रायश्चित्त, विनय, वैय्यावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये छह भेद हैं।
१. प्रायश्चित्त-प्रमादसे लगे हुए दोषोंको दूर करना प्रायश्चित्त तप है । ५३६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा