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१. अविरुद्धव्याप्योपलब्धि-शब्द परिणामी है, कृतक होनेसे ।
२. अविरुद्धकार्योपलब्धि-इस प्राणिमें बुद्धि है, वचनप्रयोगको प्रवृत्ति होनेसे।
३. अविरुद्धकारणोपलब्धि-यहाँ छाया है, छत्र होनेसे ।
४. अविरुद्धपूर्वचरोपलब्धि-एक मुहूर्त के अनन्तर रोहिणीका उदय होगा, इस समय कृत्तिकाका उदय होनेसे ।।
५. अविदोतवो ललित- मुर्ह पहले भरणीका उदय हो चुका है, वर्तमानमें कृत्तिकाका उदय होनेसे ।
६. अविरुद्धसहचरोपलब्धि -- इस आममें रूप है, क्योंकि रस पाया जाता
७. विरुद्धच्याप्योपलब्धि-यहाँ शीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि उष्णता पायो जाती है।
८. विरुद्धकार्योपलब्धि-यहाँ शीत स्पर्श नहीं है, धूमका सद्भाव रहनेसे ।
९, विरुद्धकारणोपलब्धि-इस प्राणीमें सुख नहीं है, हृदयमें शल्य होनेसे ।
१०. विरुद्धपूर्वचरोपलब्धि-एक मुहूर्त के बाद रोहिणीका उदय नहीं होगा, क्योंकि इस समय रेवतीका उदय है ।
११. विरुद्धोत्तरचरोपलब्धि-एक मुहूर्त पहले भरणीका उदय नहीं हुआ है, क्योंकि इस समय पुष्यका उदय हो रहा है।।
१२. विरुवसहचरोपलब्धि--इस दीवालमें उस ओरके हिस्सेका अभाव नहीं है, क्योंकि इस ओरका हिस्सा देखा जाता है।
१३. अविरुद्धस्वभावानुपलब्धि-इस भूतल पर घड़ा नहीं है, अनुपलब्ध होनेसे।
१४. अविरुखव्यापकानुपलब्धि-यहाँ शीशम नहीं है, वृक्षाभाव होनेसे ।
१५. अविरुद्धकार्यानुपलब्धि-यहाँ पर अप्रतिबद्ध शक्तिशाली अग्नि नहीं है, धूमाभाव होनेसे।
१६. अविरुद्धकारणानुपलब्धि-यहाँ घूम नहीं है, अग्निका अभाव होनेसे।
१७. अविरुद्धपूर्वचरानुपलब्धि-एक मुहूर्त के बाद रोहिणीका उदय नहीं होगा, क्योकि अभी कृत्तिकाका उदय नहीं हुआ है।
१८, अविरूद्धोत्तरचरानुपलब्जि–एक मुहूर्त पहले मरणीका उदय नहीं हुआ; क्योंकि अभी कृत्तिकाका उदय नहीं है।
१९. अविरुद्धसहचरानुपलब्धि--इस सम तराजूका एक पलड़ा नीषा नहीं है, क्योंकि दूसरा पलड़ा ऊंचा नहीं पाया जाता। ४४८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा