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दिये हैं। वे चौर-कर्म छोड़कर सद्गृहस्थका जीवन व्यतीत करने लगे हैं । अतएव तुम तीर्थंकर महावीरका उपदेश सुननेके लिये कभी मत जाना और जिस रास्ते में उनकी समवशरण सभा जुटी हो, उस रास्ते से भी अलग रहना !"
रोहा - "पूज्यचरण ! आपकी आज्ञा स्वीकार है ।"
पिताको मृत्युके अनन्तर रोहा अपने पैतृक व्यवसाय चीर्य-कर्मको सुचारु रूपसे सम्पादित करने लगा। एक दिन वह किसी गाँवसे चोरी करके लोट रहा था कि मार्ग में तीर्थंकर महावीरका समवशरण दृष्टिगोचर हुआ । वह सोचने लगा-' - "कोई दूसरा मार्ग भी नहीं है। में कहाँ आकर फँस गया हूँ । दिव्यध्वनिका एक भी शब्द सुनायी न पड़े, इस उद्देश्यसे उसने अपने कान बन्द कर लिये और तेजी से दौड़ने लगा। दौड़ता हुआ जब वह समवशरण के समीप पहुँचा, तो उसके पैरमें एक काँटा गड़ गया । अब तो उसका चलता ही बन्द हो गया | अतः कानोंपरसे हाथ हटाकर काँटा निकालने लगा । इसी समय तीर्थंकर महावीरकी दिव्यध्वनि द्वारा देवलोकका वर्णन किया जा रहा था - "देवोंकी प्रतिच्छाया नहीं पड़ती। उनके नेत्रोंके पलक नहीं गिरते । वे धरतीपर पाँव नहीं रखते । चार अंगुल ऊपर आकाशमें ही चलते हैं । उनकी पुष्पमाला म्लान नहीं होती ।"
विना इच्छा के रोहाके कानोंमें ये प्रवचन प्रविष्ट हो गये और वह इन प्रवचनोंको भूलनेके लिये नाना प्रकारकी गालियाँ बकने लगा । किन्तु संसारका यह नियम है कि जिस बातको भूलने का प्रयास किया जाता है, वह बात और अधिक याद आती है। रोहाने भी महावीरके प्रवचनोंको भूलने का पूरा प्रयास किया, पर वह उन्हें भूल न सका ।
रोहाके चौर्य-कृत्योंसे राजगृह निवासी बहुत तंग हो गये थे। चोरीसे परेशान नागरिकोंने सम्राट् श्रेणिक के समक्ष प्रार्थना प्रस्तुत की और श्रेणिकने मंत्री अभयकुमारको चोरको पकड़ने और उचित दण्ड देनेका अधिकार दे दिया। अभयकुमारने गुप्तरूपसे चोरोंके अड्डोंका निरीक्षण किया और चन्द्रसेना नामक वैश्याको चोरके पकड़ने के लिये षड्यन्त्रहेतु तैयार किया ।
रोहा वेश्यागमन के हेतु चन्द्रसेना के यहाँ गया । चन्द्रसेना रोहाकी भाव-भंगिमासे समझ गयी कि यह चोर है। अतः उसने मदिरा पान द्वारा रोहाको बेहोश कर अभयकुमारको सूचना दी। अभयकुमार के आदेशानुसार, रोहाके रहस्यका पता लगानेके लिये उसे एक सुवासित भवनमें सुला दिया गया और उसके चारों ओर चार सुन्दरियाँ दिव्य वस्त्रालंकार धारणकर खड़ी हो गयीं। जब रोहाकी मूर्च्छा दूर हुई, तो अपनेको एक सज्जित, सुवासित और दिव्यभवन में प्राप्तकर उसे आश्चर्य हुआ । वे चारों सुन्दरियाँ हाथ
२१२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा