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जोड़कर कहने लगी- "यह स्वर्ग है और हमलोग देवाङ्गनाएं हैं। आपकी सेवाके लिये प्रस्तुत हुई हैं।"
रोहा सोचने लगा- "तीर्थंकर महावीरने बतलाया था कि देवांगनाओोंकी प्रतिच्छाया नहीं पड़ती । नेत्रोंके पलक नहीं झपकते । धरतीपर पाँव नहीं पड़ते । पर इन सुन्दरियों में ये लक्षण नहीं घटित हो रहे हैं। अवश्य ही मुझे पकड़ने के लिये यह षड्यन्त्र किया गया है। अतः मुझे कपटपूर्वक उत्तर देना चाहिये । वह बोला मैं अत्यन्त धर्मात्मा हूँ। मैंने दान-पुण्य के अनेक कार्य किये हैं। उन्हींके फलस्वरूप यह स्वर्ग मिला है।"
प्रमाण न मिलनेसे अभयकुमारने लाचार होकर रोहाको छोड़ दिया । बन्धनमुक्त होनेपर हा विचारने लगा - "यह संसार स्वार्थी है। मेरे पिताने स्वार्थसे प्रेरित होकर ही तीर्थंकर महावीरका उपदेश न सुननेके लिये प्रतिज्ञा करायी थी । आज मेरे प्राणोंको रक्षा महावीरके प्रवचनोंसे ही हुई है। महावीर सर्वज्ञ, हितोपदेशी और वीतराग है। अतः मेरे लिये उनका शरण ही कल्याणकारक हो सकता है। मैंने उनके प्रति अपशब्दोंका व्यवहारकर पाप-बन्ध किया है । अत: मैं क्षमा याचनाकर इस चौर्य-कर्मको त्यागकर दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण करूँगा । इस संसार में कोई किसी का नहीं है। सब स्वार्थवश हितैषी बनते हैं ।"
इस प्रकार ऊहापोहकर रोहा चोर महावीरके समवशरण में उपस्थित हुआ पश्चात्तापके कारण उसका हृदय शुद्ध तथा निर्मल बन गया और उसने दिगम्बरदीक्षा ग्रहण कर ली ।
वास्तवमें महावीर ऐसे पारसमणि थे, जिनके सम्पर्कसे रोहा चोर जैसे कितने ही पापी स्वर्ण बन गये । उनके प्रवचन में हृदय परिवर्तनकी अपूर्व क्षमता थी | दुष्ट-से-दुष्ट और दुराचारी से दुराचारी भी उनके निकट सम्पर्क में आनेपर परिवर्तित हुए बिना नहीं रह सकता था । उनको वाणीका प्रभाव जादू जैसा था। उन्होंने अपनी अहिंसाकी मधुर वीणाद्वारा लोगोंके हृदयको द्रवीभूत कर दिया । वे अपने युगके सर्वश्रेष्ठ धर्मनायक और जनहितेषी थे । मेघकुमार : विलासका विराग
कहा जाता है कि मेघकुमारका जीवन बड़ा ही विलासी या । उसे भोगोपभोगकी वस्तुओंसे विशेष रुचि थी । सुस्वादु और सुन्दर भोजन करना, नृत्यका अवलोकन करना और संगीतद्वारा चित्तका अनुरंजन करना उसका प्रतिदिनका कार्यं था। जिसने भी मेघकुमारके वैभव और विलासको देखा, उसने कभी यह कल्पना भी नहीं कि यह व्यक्ति कभी विरक्त हो सकता है । विलासका परिणमन वीतरागता में शायद ही कभी होता है। जो इन्द्रिय-सुखोंका
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : २१३