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इन्द्रभूति गौतम, अग्निभूति, वायुभूति, आदिको अध्यर्थना हेतु उपस्थित थे । वज्जि और लिच्छवी राजा भी समवशरणमें श्रोताके रूपमें उपस्थित थे । चारों ओर हर्ष और उल्लासकी लहर व्याप्त थी । यों तो समवशरणकी व्यवस्था हो ऐसी थी कि सभी श्रोता जीव-जन्तु अपने-अपने नियत स्थानपर बैठते चले जा रहे थे। पर महाराज श्रेणिक अपनी ओपचारिकता प्रदर्शित करनेके लिये सभीकी भावभीनी अभ्यर्थना करते हुए यथास्थान बैठनेका निवेदन कर रहे थे ।
श्रोणिक युगविभूति तीर्थंकर महावीरके प्रति अपनी अपार भक्ति दिखला रहे थे | इस समय श्रमिकको देखकर ऐसा तनिक भी आभास नहीं होता था कि ये कभी दृष्टि रहे हैं । श्र णिकके हृदय में भक्ति के साथ आत्म-चिन्तनकी आकुलता भी समाहित थी। उनके मन में त्रिषष्टिशलाका-पुरुषोंके जीवनवृत्तको अवगत करने की प्रबल इच्छा थी । अतएव उन्होंने समवशरण में त्रिषष्टिशलाका-पुरुषोंके चरितको ज्ञात करने की इच्छा व्यक्त की। आज जितने जेन पुराण उपलब्ध हैं, वे सभी श्रेणिकके प्रश्नोंके उत्तरके रूपमें ग्रथित किये गये हैं । समवशरणमें यों तो सभी श्रोताओंको प्रश्न करनेका अधिकार था, पर श्रेणिकको यह अधिकार सबसे अधिक प्राप्त था 1 जिस प्रकार इन्द्रभूति गौतमको महावीरके पट्टगणधर होनेका सौभाग्य प्राप्त है, उसी प्रकार श्रेणिकको प्रधान श्रोता होनेका गौरव उपलब्ध है ।
समवशरण में दिव्यध्वनि के प्रादुर्भावहेतु गौतम गणधर जैसे व्याख्याताकी आवश्यकता थी, उसी प्रकार जनहित के लिये थे कि जैसे प्रश्नकर्ताकी भी । तीर्थंकर महावीरके उपदेश जनकल्याणके हेतु सरल और सुबोध शैलीमें होते थे । उनमें न आडम्बर था, न ढकोसला था, न दुराव था, न कोई छल-कपट ही । रोहा : बबला जीवन एक प्रवचनने
रोहाका पिता मृत्युशय्यापर पड़ा है। वह अन्तिम घड़ियाँ गिन रहा है । पर न मालूम किस आशामें उसके प्राण अटके हुए हैं। रोहा पिताकी सेवा में उपस्थित हुआ और करबद्ध प्रार्थना करता हुआ कहने लगा- पूज्य तात ! आपकी अन्तिम इच्छा क्या है ? पुत्रका कर्त्तव्य है कि वह पिताकी इच्छाओंको पूर्ण करे | अतएव में आपकी अन्तिम इच्छाको पूर्ण करनेके लिये प्रस्तुत हूँ ।" पिता -- " वत्स ! में तो कुछ ही क्षणोंका मेहमान हूँ, पर तुझे मेरी अन्तिम इच्छा पूर्ण करनी है ।"
रोहा - "तात ! शीघ्र आज्ञा दीजिये। मैं सभी तरहसे तैयार हूँ ।"
पिता - " वत्स ! तीर्थंकर महावीर नामका एक अद्भुत जादूगर है। उसकी वाणीका प्रभाव विचित्र रूपमें पड़ता है । वह सदाचार, धर्म और ज्ञानका उपदेश देता है, उसके उपदेशने मेरे कितने ही साथियोंके हृदय परिवर्तित कर
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : २११