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४. सूत्रसम्यक्त्व - मुनि आचरणके प्रतिपादक आचारसूत्रोंके श्रवणसे उत्पन्न ! ५. बीजसम्यक्त्व - गणितज्ञानके कारण बीजसमूहों के श्रद्धान से उत्पन्न । ६. संक्षेपसम्यक्त्व - पदार्थोके संक्षिप्त विवेचनको सुनकर श्रद्धाका उत्पन्न होना |
७. विस्तारसम्यक्त्व – विस्तारपूर्वक आगमके सुनने से उत्पन्न श्रद्धान | ८. अर्थसम्यक्त्व - शास्त्रके वचन बिना किसी अर्थके निमित्तसे उत्पन्न श्रद्धान ।
९. अवगाढसम्यक्त्व - श्रुतकेबलीका तत्त्वश्रद्धान । १०. परमावगाढसम्यक्त्व - केवलीका तत्त्वश्रद्धान ।
सम्यग्दर्शनका स्थितिकाल
औपशमिक सम्यग्दर्शनकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्तकी ! क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट छियासठ सागर प्रमाण है । क्षायिक सम्यग्दर्शन उत्पन्न होकर नष्ट नहीं होता, इसलिये इस अपेक्षासे उसकी स्थिति सादि अनन्त है, पर संसार में रहनेको अपेक्षा जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त सहित आठ वर्ष कम दो करोड़ वर्ष पूर्व तथा तैतीस सागर है।
सम्यग्दर्शन के अंग
जिस प्रकार मानवशरीरमें दो पैर, दो हाथ, नितम्ब, पृष्ठ उरस्थल और मस्तक ये आठ अंग होते हैं और इन आठ अंगों से परिपूर्ण रहनेपर ही मनुष्य काम करनेमें समर्थ होता है, इसी प्रकार सम्यग्दर्शनके भी निःशंकितत्व, निःकांक्षितत्व, निर्विचिकित्सत्य, अमूढदृष्टित्व, उपगूहन, स्थितीकरण, वात्सल्य और प्रभावना आठ अंग हैं । इन अष्टाङ्गयुक्त सम्यग्दर्शनका पालन करने से ही संसार-संततिका
वाकयभारसूत्र मुनिचरणविधेः सूचनं श्रघानः सूक्तासी सूत्रदृष्टिरषिगमगते रथं सार्थस्य बीजः । कैश्विज्जातोपलब्धेरसमक्षमवसादृद्वीमदृष्टिः पदार्थान् संक्षेपेणेन बुद्ध्वा रुचिमुपगतवान् साधु संक्षेपसृष्टिः ॥ यः श्रुत्वा द्वादशाङ्गों कृतरुबिरथ तं विद्धि विस्तारदृष्टि संजातार्षास्कुतश्चित्प्रय चनव चमाम्म सरेणावं दृष्टि: । दृष्टिः साङ्गाङ्गवाह्मवचनमय गाह्योत्थिता माथ गाढा कैस्यालकिताबें चिरि परमावादिगाढेति रूवा ॥
- मात्मानुशासन, गाथा ११-१४. तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ५०१