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प्रवृत्त होना चाहिए। जीव अनादि कालसे इस संसार में पंचपरावर्तन करता चला जा रहा है । जब संयमकी प्राप्ति हो जाती है, तभी इन परावर्त्तनोंसे छूटकारा प्राप्त होता है । अतएव अब मुझे रत्नत्रयकी आराधना में प्रवृत्त होना है ।"
इसप्रकार विचार कर विश्वनन्दीने श्रमण-दीक्षा ग्रहण करनेका निश्चय किया। वह अपने चाचा विश्वभूति के समीप पहुँचा और निवेदन करने लगा" तात ! मैंने संसारके रहस्यको ज्ञात कर लिया है और मेदविज्ञान द्वारा मुझे आत्मदृष्टि प्राप्त हो गयी है। आप मुझे दिगम्बर- दीक्षा ग्रहण करनेकी अनुमति दीजिए । में अब सच्चे पुरुषार्थ में प्रवृत्त होना चाहता हूँ । मानवशरीरकी प्राप्ति बड़े सौभाग्यसे होती है, इसे प्राप्तकर साधना द्वारा कर्मसंतत्तिको नष्ट कर में स्वतन्त्र होना चाहता हूँ ।"
कुमार विश्वनन्दीके इस कथनको सुनकर विशाखभूति कहने लगा- " वत्स ! तुमने इस अवस्था में ही संसारका अनुभवकर लिया ! अभी तुम्हें संसारके विषयसुखों का उपभोग करना चाहिये। जब चौथापन आरम्भ हो, तब तुम दीक्षा ग्रहण करना | राज्यकी सारी व्यवस्था तुम्हारे ऊपर ही है । मैं तो सोचता था कि तुम्हारा राज्याभिषेक कर में दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण करूं । विशाखनन्दीसे तुम परिचित ही हो, उसमें राज्यका भार वहन करनेकी क्षमता नहीं है । न वह शूर-वीर ही हैं और न राज्यशासन में कुशल है । अतएव तुम कुछ दिनों तक अभी राज्यसुखका उपभोग करो। "
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विश्वनन्दी कहने लगा--" तात ! मैं इस संसारकी वास्तविकताको समझ गया हूँ । आत्मोत्थान करनेके लिये समयकी प्रतीक्षा नहीं की जाती । अतः मब मुझे आप दीक्षा ग्रहण करनेकी अनुमति दीजिये ।"
जब विश्वभूतिने कुमार विश्वनन्दीके त्यागभावकी गहराई देखी, तो उसे श्रमण-दीक्षा ग्रहण करनेकी अनुमति दे दी । फलतः विश्वनन्दीने संसारके समस्त परिग्रहका त्यागकर सम्भूत नामक गुरुके समीप दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण की। जब विशाखभूतिको विश्वनन्दी की दीक्षाका समाचार मिला, तो उसके मनमें बड़ा पश्चात्ताप हुआ। वह सोचने लगा कि - "मैंने अपने पुत्रके साथ पक्षपातकर उसे विश्वनन्दीकी अनुपस्थितिमें मनोहर उद्यानका अधिपति बना दिया, जिससे मेरी स्वार्थपरता के कारण विश्व नन्दीको दीक्षा ग्रहण करनी पड़ी। यदि मैंने यह अनुचित कार्य नहीं किया होता, तो विश्वनन्दीको दीक्षा ग्रहण करनेका अवसर नहीं आता और राज्यकी व्यवस्था सुदृढ़ रहती ।" इसप्रकार पश्चात्ताप करने के अनन्तर उसे भी विरक्ति हो गयी और उसने भी संयम धारण कर लिया ।
३६ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा