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मुनि बनकर विश्वनन्दोने समस्त देशों में विहार करते हुए घोर तपश्चरण किया । उसका शरीर अत्यन्त कृश हो गया। वह विभिन्न देश और नगरोंमें विचरण करता हुआ मथुरा नगरीमें पहुँचा । जब चर्याके लिये भ्रमण करने लगा, तो बार्द्धक्य एवं शक्तिकी क्षीणताके कारण उसके पैर डगमगा रहे थे अधिक दूर चलना विश्वनन्दी के लिये कठिन था । उसकी शारीरिक शक्ति क्षीण हो चुकी थी, पर मनोबल और आत्मबल उदीप्त थे। शरीरसे तेजपुंज प्रस्फु टित हो रहा था, पर मार्ग चलने में उसे कठिनाई हो रही थी ।
इधर पिता मुनि दीक्षा ग्रहण करनेके पश्चात् बल और पौरुवकी हीनताके कारण विशाखनन्दी अपने समस्त राज्यको खो बैठा। अधीनस्थ राजा स्वतंत्र हो गये । विश्वनन्दीने जिस राजशक्तिका संगठन किया था, वह शक्ति कुछ ही वर्षोंमें लि-मिल हो गयी। वादीको होसी राजाके यहाँ राजदूतका कार्य करना पड़ा। अक्षमताओंके साथ उसकी व्यसनोंकी प्रवृत्ति भी उत्तरोत्तर बढ़ती जाती थी। यही कारण था कि वह दिनों-दिन निर्धन और दुःखी जीवन व्यतीत करनेके लिये बाध्य हो गया ।
संयोगवश विशाखनन्दी अपने स्वामीका दूतकार्य सम्पन्न करनेके हेतु इसी समय मथुरा नगरीमें पहुंचा। वह अपनी विषयाभिलाषा तृप्तिके लिये एक वेश्या के भवनमें पहुंचा। जिस समय वह उसके भवनकी छतपर बैठा हुआ था, उसी समय मुनि विश्वनन्दी उस वैश्याके भवन के नीचेसे चर्याके हेतु जा रहे थे । तत्काल प्रसूता एक गायने क्रुद्ध होकर मुनिराजको धक्का देकर गिरा दिया । उन्हें गिरता देख क्रोषित हो विशाखनन्दी कहने लगा--" तुम्हारा जो पराक्रम पत्थरका खम्भा तोड़ते समय देखा गया था, वह आज कहाँ गया ? इस समय तो मैं भी तुम्हें यमराजके यहाँ पहुंचा सकता हूँ । तुमने मुझे जो अपमानित किया है, उसका बदला में तुमसे चुका सकता हूँ। बड़े बहादुर बने थे, आज एक गायके धक्केसे गिर गये ? यदि अब शक्ति है, तो मेरा सामना करो ।"
इसप्रकार भुनिकी भर्त्सना करते हुए विशाखनन्दीने अनेक दुर्वचनोंका प्रयोग किया। मुनिराजका धेर्य टूट गया । उनके मनमें भी विकार उत्पन्न हो गया और कुपित होकर मन-ही-मन कहने लगे - "इस अपमानका तू अवश्य फल प्राप्त करेगा 1"
मुनिराज विश्वनन्दी बिना चर्या किये ही वापस लौट आये और उन्होंने अपनेको असमर्थ समझ सल्लेखना ग्रहण की। काय और कषायोंको कृश करनेपर
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ३७