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रत्नत्रय मोक्षका मार्ग है और इस मार्गके लिये आरम्भ-परिग्रहके त्यागी गुरुके अवलम्बनकी आवश्यकता है । जो आरम्भ, परिग्रह और हिंसासे सहित, संसारपरिभ्रमणके कारणभूत कार्यों में लीन हैं वे कुगुरु हैं । ऐसे कुगुरुओंकी भक्ति, वन्दना करना पाषण्ड या गुरुमूढ़ता है। पड अनायतन या मिथ्या आस्थाएं
भय, भासा नंमोहगा कुण्ड, सुदेश धर्म और इन तीनोंके आराधकोंको भक्ति-प्रशंसा करना षड् अनायतन हैं। शंकादि वोष
सम्यग्दर्शनके अष्टांगोंके विपरीत शंकादि आठ दोष भी श्रद्धाको मलिन बनाते हैं। वे हैं शंका, आकांक्षा, विचिकित्सा, मूढदृष्टि, दोषव्यक्तीकरण, अस्थितीकरण, अवात्सल्य और अप्रभावना । ___ वस्तुतः सम्यग्दर्शन आत्माके श्रद्धागुणको निर्मल पर्याय है । इसे धारण कर नोचकुलोत्पन्न चाण्डाल भो महान बन जाता है और श्वान जैसा निन्यप्राणी भी देवोद्वारा पूज्य बन जाता है। सम्यग्ज्ञान
नय और प्रमाण द्वारा जीवादि पदार्थोंका यथार्थ ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। दृढ़ आत्मविश्वासके अनन्तर ज्ञानमें सम्यकपना आता है। यों तो संसारक पदार्थोंका होनाधिक रूपमें ज्ञान प्रत्येक व्यक्तिको होता है। पर उस ज्ञानका आत्मविकासके लिये उपयोग करना कम हो व्यक्ति जानते हैं। सम्यग्दर्शनके पश्चात् उत्पन्न हुआ ज्ञान आत्मविकासका कारण होता है। 'स्व' और 'पर' का भेदविज्ञान यथार्थतः सम्यग्ज्ञान है।
निश्चयसम्यग्ज्ञान अपने आत्म-स्वरूपका बोध ही है। जिसने प्रात्माको जान लिया है, उसने सब कुछ जान लिया है और जो आत्माको नहीं जानता, वह सब कुछ जानते हुए भी अज्ञानी है | सम्यग्ज्ञानके सम्बन्धमें ज्ञान-मीमांसाके अन्तर्गत विचार किया जा चुका है। सम्यकचारित्र या सम्पगाचार
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान सहित व्रत, गुप्ति, समिति आदिका अनुष्ठान करना उत्तमक्षमादि दशधर्मोंका पालन करना, मूलगुण और उत्तरगुणोंका धारण करना सम्यक्चारित्र है । अथवा विषय, कषाय, वासना, हिंसा, झूठ,
तोषकर महावीर और उनकी देशना : ५०७