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धर्म-दर्शनका विषय सम्पूर्ण विश्वसे सम्बद्ध है । विश्व के किसी भी प्रदेशका मानव इन दोनोंके अभाव में अपनी समस्याओं का समाधान प्राप्त नहीं कर सकता और न जीवनको गतिशील हो बना सकता है। भौतिकतासे कल कर विश्वका प्रत्येक मनुष्य आध्यात्मिकताकी शरण में पहुँचता है और धर्म-दर्शन के आश्रयमें ही उसे शान्ति लाभ होता है। दर्शन मानवकी अनुभूतियोंकी तर्कपुरस्सर व्याख्या कर सम्पूर्ण विश्वके आधारभूत सिद्धान्तोका अन्वेषण करता है। धर्म आध्यात्मिक मूल्यों द्वारा सम्पूर्ण विश्वका विवेचन करता है। जीवनके विविध मूल्योंका निर्धारण और उनकी उपलब्धिका साधन धर्म-दर्शन ही है। ये दोनों मानवीय ज्ञानकी योग्यता, क्यार्थता तथा चरमोपलब्धि में विश्वास करते हैं। दर्शन में बौद्धिकताको आवश्यकता है, तो धर्मम आध्यात्मिकताकी । आत्मनिष्ठा. विवेक और आत्मनिष्ठ आचार व्यक्तिके व्यक्तित्व विकासके मानदंड हैं ।
ऐतिहासिक दृष्टि से धर्म-दर्शनकी उत्पत्तिका पता लगाना असम्भव है । इसके लिये प्राग ऐतिहासिक कालकी सामग्रीका विवेचन आवश्यक है । अनादि काल से मानव, मानवता की प्रतिष्ठा के लिये धर्म-दर्शनका प्रयोग करता आ रहा है। इस विश्व में धर्म-दर्शनका स्वरूप निर्धारण करने के हेतु वीतराग नेता या तीर्थकर जन्म ग्रहण करते हैं। वर्तमान कल्पकालमें चौबीस तीर्थकर हुए हैं, जिनमें अन्तिम तीर्थंकर महावीर हैं । तीर्थंकर महावीरसे पूर्व धर्म-दर्शन के व्याख्याता तेईस तीर्थंकर और हो चुके हैं। जिन्होंने मुक्ति-साधना एवं प्रकृतिके विभिन्न रहस्योंकी व्याख्याएं की हैं और मानव जीवनको सुन्दर, सरस, मधुर एवं व्यवस्थित बनाने का उपदेश दिया है। प्रत्येक कल्पकालमें चौबीस तीर्थंकरोंकी परम्परा आरम्भ होती है और यही परम्परा विच्छिन्न होते हुए समता और अहिंसामय धर्मको व्याख्या करती है । व्यक्तिको सत्ता, स्वाधीनता और सह-अस्तित्व की भावनाका प्रवर्त्तन तीर्थंकरों द्वारा हो होता है । सहिष्णुता, उदारता और धैर्य के सन्तुलन के साथ वैज्ञानिक सत्यान्वेषण की परम्पराका प्रादुर्भाव भी तीर्थकरों द्वारा ही संभव है ।
तीर्थंकर परम्पराबादी या रूढ़िवादी नहीं होते । उनको चिन्तन-पद्धति सहिष्णु, कान्तिनिष्ठ और प्रगतिशील होती है । वे प्रत्येक युगमें धार्मिक अन्तर विरोधोंको रचनात्मक मोड़ देते हैं, और अपनी स्वस्थ चिन्तन-प्रक्रिया द्वारा अहिंसा, समता, सहिष्णुता आदिकी उपासना करते हैं । स्याद्वाद या अनेकान्त उदार चिन्तन-पद्धत्तिके माध्यम से सर्वधर्मसमभावको साकार करने का यत्न तो करते ही हैं, साथ ही अन्धविश्वासों और रूढ़ियोंका उन्मूलन भी करते हैं । नर नारायणकी प्रतिष्ठा द्वारा प्रत्येक व्यक्तिको परमात्मा बनने की प्रेरणा देते
२ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परभाग