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जगतके प्राणी अनेक बोलियोंके बोलनेवाले होते हैं। अतः उन्हें लाभान्वित करनेके लिये ऐसी वाणी कार्यकारी हो सकती है, जो सभी भाषाओंका मिश्रण हो। जिस प्रकार आजकल एक ही भाषा विभिन्न अनुवादक-यन्त्रोंके द्वारा अनेक भाषाओं में सुनी जाती है, उसी प्रकार दिव्यध्यान भी अपनी विशेषताओं के कारण समस्त मानव-जगतको अपनी-अपनी बोली में सुनायी पड़ती थी ।
देव भी दिव्यध्वनिको समझते थे। इस जगतकी भाषाका क्या रूप है, यह सो अभी तक निर्धारित नहीं हो पाया है। दिव्यध्वनिका देव-जगतके भावोंके साथ सीधा सम्बन्ध है। भाव-सम्प्रेषणके लिये किसी माध्यमकी आवश्यकता नहीं थी । उदाहरणार्थ आजके वायरलेसको लिया जा सकता है। वायरलेसमें कोई माध्यम नहीं है। विचारोंका सीधा सम्प्रेषण होता है। दिव्यध्वनि इसी कारण अनक्षरात्मक मानी गयी है कि देव-जगतके साथ तरंगावली या भाव. धाराका सीधा सम्प्रेषण हो । कहा जाता है कि मौनरूपमें स्थित रहकर अनुभवका जितना ज्यादा और सीधा सम्प्रेषण होता है, उतना वाणीके द्वारा नहीं।
दिव्यध्वनिकी तरंगे देव-जगतके तलपर पहुँचती हैं। यह अनुभवकी बात है कि मनुष्य जिस तथ्यको शब्दोंके द्वारा प्रतिपादित नहीं कर पाता है, उस तथ्यको वह मौन साधना द्वारा व्यक्त कर देता है।
(३) दिव्यध्वनिको भाषात्मक मानकर हो उसे अर्धमागधो कहा गया है और यह अर्धमागधी आयं एवं आर्येत्तर भाषाओंका सम्मिलित रूप थी। समवशरण-विहार
तीर्थकर महावीरने धर्मामतकी वर्षा केवल राजगृहके आस-पास ही नहीं की, अपितु उनके समवशरणका विहार भारतके सुदूरवर्ती प्रदेशों में भी हुआ। हरिवंश-पुराणमें बताया गया है कि जिस प्रकार भववत्साल तीर्थंकर ऋषभ
१. काशिकौशलकौशल्यफुसन्ध्यासदारनामकान् ।
साल्वत्रिगतपच्चालभद्रकार पटना ।। मोकमत्स्यकनीयांश्च सूरसेनकार्थपान् । मध्यदेशानिमान मान्यान् कलिंगकुरुजांगलान् । कैकेयायकाम्बोज बाहलीकय समश्र तोन् । सिन्धुगान्धारसौबीरसरमी रुदेसराम न् ।। वाइवानभरद्वाजक्वाथतोयान् समुद्रजान् । उत्तरांस्तार्णकाणीश्च देशान् प्रमालनामकान् ।।
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : २४१