________________
राजतंत्रके समाप्त होनेपर हुई थी। इसमें विदेह, लिच्छवि, शातक, वृजि, उग्र, भोग, कौरव और इक्ष्वाकु ये आठ कुल सम्मिलित थे | विदेहोंकी प्राचीन राजपानी मिथिला थी और यह वैशालीके गणतंत्रमें समाहित हो गयी थी। वृजिराष्ट्रवासियोंमें लिच्छवि सबसे प्रशस्त थे । ये वाशिष्ठ गोत्रके थे । इसी कारण वाशिष्ठ भी कहे जाते थे । इनकी राजधानी वैशाली थी।
वृजि भी आठ कुलों से एक था। संघका नाम इसी कुलके नामपर वृजिसंघ पड़ा था। लिच्छवियोंके समान वृजियोंका भी वैशाली नगरी और इसके उपनगरोंसे घनिष्ठ संबंध था । जातक क्षत्रिय काश्यपगोत्री थे और इनकी राजधानी कुण्डपुर या कुण्डग्राममें थी। इसे क्षत्रियकुण्ड भी कहा जाता था । यह वैशालीका उपनगर था । उग्रोंका संबंध वंशाली और हस्तिग्रामसे था | भोग भोगनगरमें रहते थे। यह नगर वैशाली और पावाके बीचमें स्थित था। कौरवोंका जिसंघसे संबंध था। बौद्धधर्मक उदयके बहुत पहलेसे कुरु ब्राह्मण विदेहकी राजधानीमें बसने लगे थे। इश्चाकूओंका वैशालीसे अत्यन्त प्राचीन सम्बन्ध था; क्योंकि विशालसे लेकर सुमति तक समस्त राजा इक्ष्वाकुवंशी थे।
वृजिसंघके सदस्य 'राजा' (गणपति) कहलाते थे। सात हजार सातसो सात राजा थे। इतने ही उपराज (अध्यक्ष), इतने ही सेनापति और इतने ही भाण्डागारिक थे । सदस्योंमें उच्च, मध्य, वृद्ध और ज्येष्ठका भेदभाव नहीं था। प्रत्येक सदस्य अपनेको राजा मानता था । संस्थागारमें सदस्योंकी बैठकें हुआ करती थीं। मख्य कार्य अष्टकूलों और नी लिच्छवि गणराजाओंके द्वारा सम्पन्न होते थे । नौ लिच्छवियों, नौ मल्लकि इस प्रकार अठारह काशीकोशलके गणराजाओंने मिलकर एक संघ बनाया था ।
वृजिसंघ अपनी विशिष्ट न्यायप्रणाली के लिये प्रसिद्ध था। परम्परासे चला आया 'वजिधर्म' यह था कि बज्जिके शासक यह 'चोर है', 'अपराधी है' न कह कर व्यक्तिको विनिश्चय महामात्यके हाथमें सौंप देते थे। वह विचार करता, अपराधी न होनेपर छोड़ देता और अपराधी सिद्ध होनेपर वह उसे व्यावहारिक (न्यायाध्यक्ष) को दे देता। वह भी अपराधी जाननेपर सूत्रधारको दे देता, सूत्रधार निरपराध होनेपर छोड़ देता और अपराधी होनेपर अष्टकुलिकको सुपुर्द कर देता । अष्टकुलिक सेनापतिको, सेनापत्ति उपराजको और उपराज राजाको दे देता। राजा विचारकर यदि अपराधी न हो, तो उसे छोड़ देता और अपराधी होनेपर 'प्रवेणि-पुस्तक' (दण्डविधान) के अनुसार दण्ड-व्यवस्था करता था। इस प्रकार वैशाली-गणतंत्रकी राज्य-व्यवस्था अत्यन्त दृढ़ और व्यवस्थित पो।
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : ८१