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इतिहासकी रचनाके लिए तथ्यज्ञान आवश्यक है । यत्तःइतिहास इतीष्टं तद् इति हासीदिति श्रुतेः । इतिवृत्तमथेतिहामाम्नायं चामनन्ति तत् ॥
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- आचार्य श्री जिनसेन, आदिपुराण, १२५
'इतिहास, इतिवृत्त, ऐतिह्य और आम्नाय समानार्थक शब्द हैं । 'इति ह आसोत निश्चय ऐसा ही था), 'इतिवृत्तम्' (ऐसा हुआ - घटित दुला) तथा परम्परासे ऐसा ही आम्नात हैं-इन अर्थों में इतिहास है ।
इतिहास दीपकतुल्य है। वस्तुके कृष्ण-श्वेतादि यथार्थ रूपको जैसे दीपक प्रकाशित करता है, वैसे इतिहास मोहके आवरणका नाशकर, भ्रान्तियों को दूर करके - सत्य सर्वलोक द्वारा धारण की जानेवाली यथार्थताका प्रकाशन करता है । अर्थात् दीपक के प्रकाशसे पूर्व जैसे कक्षमें स्थित वस्तुएं विद्यमान रहते हुए भी प्रकाशित नहीं होतो, वैसे हो सम्पूर्ण लोक द्वारा धारण किया गया गर्भभूत सत्य इतिहासके बिना सुव्यक्त नहीं होता ।
प्रस्तुत ग्रन्थके अवलोकनसे स्पष्ट हो जाता है कि विद्वान्को लेखनीमें बल और विचारों में तर्कसंगतता है । समाज इनकी अनेक कृतियोंका मूल्यांकन कर चुका है - लोभाँति सम्मानित कर चुका है। प्रस्तुत कृतिसे जहां पाठकोंको स्वच्छ श्रमण-परम्पराका परिज्ञान होगा, वहाँ ग्रन्थ में दिये गये टिप्पणोंसे उनके ज्ञानमें प्रामाणिकता भी आवेगी । श्रमण परम्परा के अतिरिक्त इस ग्रन्थमें श्रमणोंकी मान्यताओं एवं जैन सिद्धान्तोंका भी सफल निरूपण किया गया है। यह ग्रन्थ सभी प्रकारसे अपने में परिपूर्ण एवं लेखककी ज्ञान-गरिमाको इङ्गित करने में समर्थ है |
यहाँ लेखक अभिन्न मित्र डॉ० दरबारीलाल कोठियाजीके ग्रन्थके प्रस्तुत प्रकाशन में किए गए सत्यप्रयत्नों को भी विस्मृत नहीं किया जा सकता है, जिनके द्वारा हमें प्रस्तुत ग्रन्थके लिए कुछ शब्द लिखनेका आग्रहयुक्त निवेदन प्राप्त हुआ। विद्वत्परिषद्का यह प्रकाशन कार्य परिषद्के सर्वथा अनुरूप है। ऐसे सत्कार्यके लिए भी हमारे शुभाशीर्वाद !
विधानन्दमुनि
१. इतिहास- प्रदीपेन मोहावरणघातिना । सर्वलोकघृतं गर्भं यथावत् संप्रकाशयेत् ॥
- महाभारत
८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा