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जिस वस्तुका जो भाव है, वह तत्त्व कहलाता है । वस्तुके असाधारण स्वरूपभूत स्वतत्वको तत्त्व कहते हैं । तत्त्वशब्द भावसामान्यका वाचक' है, क्योंकि 'तत्' यह सर्वनाम पद है और सर्वनाम सामान्य अर्थ में रहता है, अतः उसका भाव तत्त्व कहा जाता है। तथ्य यह है कि जो पदार्थ जिस रूपसे अवस्थित है, उसका उस रूप में होना, यही यहाँ तत्त्वशब्दका अर्थ है । तत्त्व सात हैं:
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(१) जोव - ज्ञान दर्शन चैतन्यरूप |
(२) अजीव - जड़ द्रव्य - पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल 1 (३) आसव - कर्मागमनका द्वार ।
(४) बन्ध - कर्मागमनका बन्धरूपमें परिणमन ।
(५) संवर आयका निरोध ।
(६) निर्जरा -- बंधे हुए कर्मोंका शनैः शनैः विनाश | (७) मोक्ष - समस्त कर्मोंका विनाश ।
तत्त्वनिरूपण प्रक्रिया और विधि
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तवनिरूपणकी मुख्यतः दो शैलियाँ प्रचिलत हैं: - (१) अनुयोगद्वारोंके आधारपर और (२) प्रयोजनीभूत पदार्थों के आधारपर । सत्, संख्या, क्षेत्र आदि अनुयोगद्वारोंके अनुसार बीस प्ररूपणाओं द्वारा जीवादिका विश्लेषण- विवेचनकरना प्रथम शैली है । यह शैली अत्यन्त विस्तृत हैं ।
दूसरी प्रक्रिया आत्मकल्याणके लिए प्रयोजनभूतपदार्थों के निरूपणकी है । ये प्रयोजनीभूत पदार्थ सात हैं, जिनका निर्देश पूर्व में किया जा चुका है । अनादिकालसे जीव तथा कर्म-नोकर्मरूप अजीब मिलकर संयुक्त अवस्थाको प्राप्त हो रहे है । अतएव इस संयुक्त अवस्था में जीव और अजीवको समझना सर्व प्रथम प्रयोजनभूत है ।
ये तत्त्व अनादि हैं। जिस प्रकार काल अनादि, अनन्त हैं, उसी प्रकार ये तत्त्व भी अनादि हैं । पुण्य और पापका अन्तर्भाव आस्रवत्तत्वमें हो जाता है, यतः सात तत्त्व ही प्रमुख हैं। यों तो आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये पाँच तत्व भावरूपमें जीवकी पर्याय हैं और द्रव्यरूपमें पुद्गलकी । जिस
१. तत्त्वशब्दो भाव सामान्यवाची । कथम् ? तदिति सर्वनामपदम् । सर्वनाम च सामान्ये वर्त्तते तस्य भावस्तत्त्वम् । तस्य कस्य ? योऽर्थो यथावस्थितस्तथा तस्य भवनमित्यर्थः तथा राजवार्तिकः २२१०६. - सर्वार्थसिद्धि ११२२८.
३६२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा