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भेदविज्ञानसे आत्मा और परके विवेकशामसे आधारको सांधना द्वारा केवल ज्ञानकी प्राप्ति होती है, उस आत्मा और परमें ये सासों तत्त्व समाहित हो जाते हैं। पर तत्त्वव्यवस्थाको सारा के लिए माता की जानकारी आवमा ।
जिस 'पर'की परतन्त्रताको हटाना है और जिस 'स्व'को स्वतन्त्र करना है, उन 'स्व' और 'पर'के ज्ञानमें ही तत्त्व-ज्ञानको पूर्णता है। यत्तः मुक्तिका साधन 'स्व-पर-विवेकज्ञान' है।
जीवका लक्ष्य दुःखोंसे छुटकारा प्राप्तकर शाश्वत सुख-मोक्षको प्राप्त करना है और इस दुःखसे छूटनेके हेतु जिन पदार्थोकी जानकारी अपेक्षित है, वे पदार्थ तत्व कहलाते हैं । दुःख और दुःखनिवृत्ति करनेके सम्बन्धमें सात प्रकारको जिज्ञासाएं उत्पन्न होती हैं:
(१) स्वतंत्रता प्राप्त करनेवालेका क्या स्वरूप है ?
(२) परतन्त्रता-आवरण करनेवाली वस्तु कौन है और उसका क्या स्वरूप है ?
(३) आवरण करनेवाली वस्तु स्वतन्त्रता प्राप्त करनेवाले जीव तक कैसे पहुँचतो है ?
(४) पहुंचकर वह किस प्रकार बंधती है ? (५) नवीन कर्मबन्धको रोकनेका क्या उपाय है ? (६) पूर्वाजित कर्मोको कैसे नष्ट किया जा सकता है ? (७) मुक्तिका क्या स्वरूप है?
पूर्वोक्त सात तथ्योंको जानकारी प्रत्येक मुमुक्षुके लिए आवश्यक है । जिज्ञासाके फलस्वरूप उत्तरमें प्राप्त सात तत्त्व हो प्रयोजनभूत हैं। आत्मतश्व: निरूपण
आत्महित-साधन करना ही जीवका लक्ष्य है और यह लक्ष्य है मोक्षप्राप्ति । पर मोक्षको प्राप्ति प्रधानकारणोंके जाने बिना संभव नहीं है। आत्माके यथार्थ स्वरूपका निरूपण किये बिना विकारी आत्माका परिज्ञान नहीं हो सकता है । जिस प्रकार रोगीको जबतक अपने मूलभूत आरोग्य स्वरूपका ज्ञान न हो, तब तक उसे यह निश्चय ही नहीं हो सकता है कि मेरी यह अस्वस्थ अवस्था रोग है। रोगके विकारको यथार्थ जानकारी तभी संभव है जब उसे अपनी आरोग्य अवस्थाका परिज्ञान हो जाय।।
इस विश्वमें अनन्स आत्माएं हैं और उनको अपनी स्वतन्त्र सत्ता है । आत्माएं किसी विराट सत्ताका अंश नहीं हैं । सभी आत्माओंका मूल स्वभाव समान हैं, उसमें कोई विलक्षणता नहीं, भेद नहीं। सभी आत्माओंका स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध है।
तीर्थकर महावीर और उनकी देशमा : ३६३