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विनाश और उत्तरपर्यायका उत्पाद होते हुए भी सतत अविछिन्नता बनी रहती है । अत: आकाश परिमामोनिस्य है । कालव्य : स्वरूप-विश्लेवन
समस्या उत्पादित करणार में सहायता होता है। इसका लक्षम वर्तना है। यह स्वयं परिवर्तन करते हुए अन्य द्रव्योंके परिवर्तनमें सहायक होता है। कालन्द्रस्यके दो भेद हैं:-(१) निश्चयकाल, (२) व्यवहारकाल । निश्चयकाल अपनी द्रव्यात्मकसत्ता रखता है और वह धर्म और अधर्मद्रव्योंके समान समस्त लोकाकाशमें स्थित है ।
कालद्रव्य भी अन्य द्रव्योंके समान उत्पाद, व्यय और नौव्य लक्षणसे युक्त है । रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदिसे रहित होनेके कारण अमूर्तिक है। प्रत्येक लोकाकाशके प्रदेशपर एक-एक कालद्रव्य अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखता है। धर्म और अधर्म द्रव्यके समान वह लोकाकाशव्यापी एक द्रव्य नहीं है, क्योंकि प्रत्येक लोकाकाशप्रदेशपर समयभेदसे अनेक द्रव्य स्वीकार किये बिना कार्य नहीं चल सकता है।
कालव्यके कारण ही वस्तुमें पर्याय-परिवर्तन होता है। पदार्थों में कालकृत सूक्ष्मतम परिवर्तन होने में अथवा पुदगलके एक परमाणुको आकाशके एक प्रदेशसे दूसरे प्रदेशपर जानेमें जिसना काल या समय लगता है, वह व्यवहार कालका एक समय है। ऐसे असंख्याल समयोंकी आवलि, संख्यास आवलियोंका एक उच्छ्वास, सात उच्छ्वासोंका एक स्तोक, सात स्तोकोंका एक लव, ३८३ लवोंको नाली, दो नालियोंका एक मुहूर्त और तोस मुहूत्र्तका एक अहोरात्र होता है । इसी प्रकार पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष, युग, पूर्वांग, पूर्व, नयुतांग, नयुत आदि संख्यातकालके भेद है। इसके पश्चात् असंख्यातकाल प्रारम्भ होता है, इसके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ये तीन भेद हैं,
अनन्सकालके भी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट मेद किये गये हैं । अनन्तका उत्कृष्ट प्रमाण अनन्तानन्त है । साततस्व: स्वरूप-विचार और भेव
पदार्थ-व्यवस्थाकी दृष्टि से यह विश्व षद्रव्यमय है। पर मुमुक्षुक लिए मुक्ति प्राप्त करनेके हेतु जिस तत्त्वज्ञानकी आवश्यकता होती है, वे तस्व सात हैं। विश्व-व्यवस्थाका ज्ञान होनेपर भी तस्वशानके अभावमें मोल-प्राप्ति सम्भव नहीं है।
तीर्थकर महावीर और उनकी देशमा : ३६१