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स्वार्थपूर्ण और संकीर्ण दृष्टिकोण है 1 ऐसा जीवन उच्चतर आदर्शका प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता, क्योंकि सर्वोच्च ऐश्वर्य भी शनैः शनैः नष्ट होते-होते एक दिन बिलकुल नष्ट हो जाता है और अभावजन्य आकुलताएँ व्यक्तिके जीवनको अशान्त, अतृप्त और व्याकुल बना देती हैं ।
मनुष्य जन्म लेता है, समस्त सुखोंपर अपना एकाधिकार करनेका प्रयल भी करता है। परिवार सहित मन ऐना एवं सुखोंका भोग भी करता है, पर एक दिन ऐसा आता है जब वह सब कुछ यहाँका यहीं छोड़ मत्यको प्राप्त होता है । अतः यह सदैव स्मरणीय है कि सांसारिक सुख ऐश्वर्य और भोग क्षणभंगर है। इनका यथार्थ उपयोग स्यागवत्तिवाला व्यक्ति ही कर सकता है। जिसने शाश्वत, चिरन्तन आत्म-सुखको अनुभूति प्राप्त को है, वही व्यक्ति संसारके विलास-वैभवोंके मध्य निलिप्त रहता हुआ उनका उपभोग करता है।
शाश्वत सुख अथबा परमशक्ति तक पहुंचनेका मार्ग संसारके मध्यसे ही है। चिरन्तन आत्म-सुख और अशाश्वत भौतिक सुख परस्परमें अविच्छिन्नरूपसे सम्बद्ध दिखलाई पड़ते हैं, पर जिन्होंने अपनी अन्तरात्मामें प्रकाशको प्राप्त कर लिया है, वे व्यक्ति मोहको जड़ोंमें बद्ध नहीं रह पाते । वस्तुतः मानवजोबनका मुख्य उद्देश्य आत्मसुख प्राप्त करना है। पर इस सुखकी उपलब्धि इस शरीरके द्वारा ही करनी है । अतः संपम, अहिंसा, त! और साधनारूप धर्मका आश्रय लेना परम आवश्यक है।
मानव-जीवनके प्रमुख चार उद्देश्य है:-(१) धर्म, (२) अर्थ, (३) काम और (४) मोक्ष । मोक्ष परमलक्ष्य है । इस लक्ष्य तक पहुँचनेका साधन धर्म है। काम लौकिक जीवनका उपादेय तत्त्व है और इसका साधन अर्थ है । अर्थ मानवको स्वाभाविक प्रवृत्तियों की ओर प्रेरित करता है । वह धनार्जनको इच्छापूर्ति के लिए उपयोगी मानते हुए भी अन्याय, अत्याचार एवं पर-पीड़नको स्थान नहीं देता। यह मनुष्यको पाशविक प्रवृत्तियोंका नियंत्रण कर उसे मनुष्य बननेके लिए अनुप्रेरित करता है। ___ सामाजिक व्यवस्था धर्म अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं प्रभावशाली अवधारणा है। धर्म मानवके समस्त नैतिक जोवनको नियन्त्रित करता है। मनुष्यकी अनेक प्रकारको इच्छाएं एवं अनेक संघर्षात्मक आवश्यकताएं होती हैं । धर्मका उद्देश्य इन समस्त इच्छाओं तथा आवश्यकतोंको नियमित एवं व्यवस्थित करना है। अतएव धर्म बह है जो मानव-जोवनको विविधताओं, भिन्नताओं, अभिलाषाओं, लालसाओं, भोग, त्याग, मानवोय आदर्श एवं मूल्योंको नियमबद्ध ४८६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा