________________
I
थे । और हृदयमें प्रवल आकर्षण था । नेत्रोंसे गिरती अश्रुधारा और जनताका निश्छल प्रेम भो महावोरके चरणोंको बांधने में असफल रहा | धन्य थे उनके चरण । उनके उन चरणोंमें कितनी गति थी । कितनो संचरण-शक्ति थी।
जनता डबडबाई आँखोंसे महावीरके मुखको देखती रही और महावीर मोह-बन्धनों को तोड़कर 'चन्द्रप्रभा' पालकीपर जा बैठे ।
आत्म-स्वातन्त्र्यकी बेला
देव और मानवों के बीच विवाद आरम्भ हुआ कि त्रिलोकीनाथ महावीरकी इस चन्द्रप्रभा पालकी को पहले कौन उठायेगा ? देवोंने अपने तर्क उपस्थित किये और मानवोंने अपने तर्क । मानवोंने कहा जो महावीर के साथ दीक्षित हो सकता है, वही उनकी इस पालिकोको अपने कंधों पर उठानेका अधिकारी है । संयमग्रहण करनेमें असमर्थ देव कतराने लगे और मानव मंगलके वे क्षण अत्यन्त भाग्यशाली बन गये । आरंभ में मानवोंने कंधोंपर पालकीको उठाया; अनन्तर देव-देवेन्द्र पुलकित हो 'चन्द्रप्रभा' पालकीको उठाये हुए 'खण्डबन' की ओर बढ़ने लगे। इसे 'नायखण्डवन' या 'ज्ञात खण्डवन' भी कहते हैं । वैशाली गणतन्त्रने आत्मस्वान्त्र्यकी बेलाका अनुभव किया ।
तुमुल जयघोषोंसे गगन, घरा, दिदिगन्त गूँज उठे ! वैशालीसे ज्ञातखण्डवन तक सम्पूर्ण प्रदेश जीवन्त था । आध्यात्मिक जागृतिको लहर एक छोरसे दूसरे छोर तक व्याप्त थी । जीवन की समस्त उज्ज्वलताएँ लोक-कल्याणके लिये प्रवृत्त थीं ।
पालकी - चाहकोंने उद्यानमें पहुँच कर महिमामय अशोकवृक्षके नीचे पालकीको उतारकर रख दिया। महावीर पालकीसे नीचे उतरे और अशोकवृक्ष के नीचे स्थित मणिजटित स्फटिक शिलापर आसीन हो गये और उत्तर दिशाकी ओर मुखकर अपने समस्त वस्त्राभूषणों को त्यागकर दिगम्बर वेश धारण किया ! अब ये यथाजात शिशुवेषमें दिखाई पड़ रहे थे। कितना हृदयद्रावक और प्रभावक यह दृश्य रहा होगा, जिसमें एक राजकुमार अपने विशाल वैभवको ठुकरा कर अपरिग्रही विरक्त बन रहा हो । दिग्बंधुओंने दिगम्बर महावीरको आरती उतारी और देव मानवोंने दीक्षा कल्याणक सम्पन्न किया । महावीरने सिद्धपरमेष्ठीको नमस्कार कर पंच मुष्टियों द्वारा अपने राजसी, सुकोमल, स्निग्ध केशोंका लुञ्चन किया उन्होंने शरीरके मोहपर पूर्ण विराम लगा दिया और आत्म-लोचन एवं आत्म-शोधन में प्रवृत्त हुये ।
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : १३३