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थे । अब उन्हें एक क्षण भी वैशाली में निवास करना असा प्रतीत हो रहा था । देवोंने विलखते हुए मातृत्वको सांत्वना दी और महावीर की शक्तियोंका परिज्ञान कराया ।
चरण चल पड़
मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी २९ दिसम्बर ई० पू० ५६९ की तिथि भारतीय इतिहासमें स्वर्णाक्षरोंमें अंकित है ।" इस दिन कुण्डग्रामका राजमार्ग जयघोषोंसे गूँज रहा था और महावीर कामनाओं एवं विषय-वासनाओं पर विजय प्राप्त करने के लिये कृतसंकल्प थे। उनके साहस और शौर्यपूर्ण चरण आत्मविजयकी मोर बढ़ रहे थे । देशोंपर विजय प्राप्त करनेवाले तो विश्व के इतिहास में अनेक महापुरुष मिलते हैं, पर कषायों और विषय-वासनाओं को जीतनेवाले महामानव कम ही होते हैं । महावीर विषय-वासनाओं की कटीली झाड़ियोंको काटने के लिये गतिशील थे । कोटि-कोटि मानव श्रद्धा और विश्वाससे अवनत हो चरण-स्पर्श कर रहे थे। वे मानवको दुःखोंसे त्राण देनेके हेतु उद्यत थे ।
वास्तव में इन्द्रियोंकी दासता और विलासिता दुर्दमनीय शत्रु हैं। बड़े-बड़े शक्तिशाली शत्रुओंको पराजित करनेवाले अनेक योद्धा होते हैं। पर रोग, शोक, कदाचार और काम जैसे अन्तरंग दुर्दमनीय शत्रुओंको तो तीर्थंकर महावीर जैसे विरले महामानव ही पराजित कर सकते हैं ।
महावीर राज्य भवन, सुख-सम्पदा और कुटुम्ब वर्गको त्यागकर दिगम्बरदीक्षा ग्रहण करनेके लिये सश्रद्ध हो गये । समस्त कुण्डग्राम में शोक और उल्लासकी लहर व्याप्त हो गयी । शोक इसलिये कि उनके प्राणप्रिय राजकुमार उन्हें छोड़कर जा रहे थे और उल्लास इसलिए कि उनके श्रद्धापात्र महावीर उन विषय-वासनाओंसे युद्ध करनेके लिए जा रहे हैं, जिन्हें अबतक लोग अजेय, अविजितं समझते आ रहे थे। एक ओर जनता के नेत्रोंसे अश्रुधारा प्रवाहित हो रही थी, तो दूसरी ओर जनता के कण्ठसे जयनाद भी निकल रहा था। हर्ष और विषाद के समागमका अद्भुत दृश्य था ।
कुण्डग्राम वासियोंने महावीर के दीक्षा कल्याणककी पूरी तैयारी की। इस उत्सव में देव भी सम्मिलित हुए। समारोह में परिजन पुरजन और प्रजाजन एकत्र हुए । सबने महावीरको विदा दी। सभोके नेत्र असुओं से गोले हो रहे
१. मग्गसिर बहुलदसमी अबरहे उत्तरासु णाघवणे । तदियध्वणम्म गहिदं मन्दं
वडमाणेण ॥
- तिलो० प० ४।६६७
१३२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा