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इसप्रकार उनका किशोर-काल या कुमार-काल अलौकिक और दैवीय गुणोंसे युक्त होकर व्यतीत होने लगा। उनकी प्रत्येक क्रिया विशिष्ट मालूम होती थी । वे सामान्य मनुष्योंकी अपेक्षा विशिष्ट विचारशील नेताके रूपमें दिखलायी पड़ते थे। यही कारण है कि उन्हें सभी लोग जापक, तारक,बोधक और मोचकके रूपमें देखते थे। वे स्वयं सोचते कि मानव-जीवन संगमर्मरके समान है और मानव एक शिल्पकार है। कुशल शिल्पोंके हाथों द्वारा मानवधन सुन्यस्तम रूपमें परिणत हो जाता है। यदि मानव कुशल शिल्पकार नहीं बन पाया, तो जीवन-संगमर्मरका स्वयं कोई मूल्य नहीं है। संगमर्मरका यह टुकड़ा केवल पाषाण-खण्ड ही रह जायगा, इससे और आगे कुछ नहीं बनेगा | यदि सौन्दर्यको अभिव्यञ्जना करनी है, तो कुशल शिल्पकार बनना होगा, तभी जीवनसंगमर्मरसे आराध्य आत्मा या भगवानको मूर्ति गढ़ी जा सकेगी। मानव अपनेको पहचान ले तो उसे शिल्पकार बनने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती है।
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : ११५