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वाचकका मेद है । साधन वाच्य है यतः वह कोई वस्तुरूप होता है और हेतु वाचक है, यतः उसके द्वारा वह वस्तु कही जाती है। हेतुको साध्याभावके साथ न रहनेवाला अर्थात् अविनाभावी होना आवश्यक बतलाया है |
हेतुका प्रयोग तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्तिरूपसे होता है । इसीको अन्वयविधि और व्यतिरेकविधि भी कह सकते हैं। व्युत्पन्न श्रोताको मात्र प्रतिज्ञा और हेतुरूप परोपदेशसे परार्थानुमान उत्पन्न होता है ।
अनुमानके अन्य अवयव
अनुमानके प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन ये पाँच अवयव माने जाते हैं। इन अवयवोंका प्रयोग इस प्रकार होता है-'पर्यंत अग्निवाला हैं घूमवान् होनेसे; जो-जो धूमवान् है, वह अग्निवाला होता है, जैसे महानस । इसी प्रकार पर्वत भी घूमवान् है, इसलिए अग्निवाला है' इन अवयवोंमें प्रतिज्ञा और हेतु ये दो अवयव ही कार्यकारी हैं । प्रतिज्ञा प्रयोगके विना साध्यधर्मीके आधार में सन्देह बना रहता है । प्रतिज्ञाके विना सिद्धि किसकी की जायगी । पक्षी उपस्थित करके हेतुरोग न्याय पाना जाता है। अतः साधनवचनरूप हेतु और पक्षवचनरूप प्रतिज्ञा इन दो अवयवोंसे ही परिपूर्ण का बोध हो जाता है । दृष्टान्त, उपनय और निगमनका प्रयोग वादकथा में व्यर्थ है ।
वस्तुतः अनुमान के अवयवों का प्रयोग प्रतिपाञ्चकी दृष्टिसे किया जाता है । प्रतिपाद्य दो प्रकारके होते हैं: - (१) व्युत्पन्न और (२) अव्युत्पन्न । व्युत्पन्न वे हैं जो संक्षेप या संकेत में वस्तुस्वरूपको समझ सकते हैं तथा जिनके हृदयमें तकंका प्रवेश है । अव्युत्पन्न वे प्रतिपाद्य हैं, जो अल्पप्रज्ञ हैं, जिन्हें विस्तारसे समझाना आवश्यक होता है और जिनके हृदयमें तर्कका प्रवेश कम रहता है ।
अनुमानके उपयोगिताकी दृष्टि से दो ही अवयव हैं । दृष्टान्तके अभाव में मी अनुमान समीचीन होता है । यथा - सर्वं क्षणिकं सत्वात्' इस अनुमानमें दृष्टान्त नहीं है, फिर भी यह प्रमाणभूत है ।
उदाहरणकी सार्थकता व्याप्तिस्मरण के लिए भी नहीं है, यतः अविनाभावी हेतुके प्रयोगमात्रसे ही व्याप्तिका स्मरण हो जाता है । संसार में विभिन्न चिन्तक तथ्योंको विभिन्न रूपमें स्वीकार करते हैं, अतः सर्वसम्मत दृष्टान्तका मिलना अशक्य है। दूसरी बात यह है कि दृष्टान्तमें व्याप्तिका ग्रहण करना अनिवार्य भी नहीं है; क्योंकि जब समस्त वस्तुओंको पक्ष बना लिया जाता है, तब किसी दृष्टान्तका मिलना असम्भव हो जाता है। अतः विपक्ष में बाधक प्रमाण देखकर पक्ष में ही साध्य और साधनको व्याप्ति सिद्ध कर ली जाती है । वादकथा की दृष्टिसे दृष्टान्त निरर्थक और अव्यवहार्य है ।
४४६ : तोर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा