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महावीरका सम्पर्ण जीवन चिन्तनका क्षेत्र बन गया । इसकी सम्पर्ण साधना विजयकी साधना हो गयी। जितेन्द्रिय बनना-आन्तरिक रूपसे आत्म-विरोधी तस्वोपर विजय प्राप्त करना लक्ष्य हो गया । आत्मोदय स्वाधीनताके रूपमें परिणत होने लगा.। शरीर और मनको परतन्त्रता नष्ट होने लगी । परमस्वातन्त्र्य अपने निज स्वभावकी ओर बढ़ने लगा। उनके पौरुषेय-पराक्रमसे अनन्त पर्यायोंके दुबर्ष मोह, राग और वासनाके विकार धूलिसात होने लगे। चित्तकी चञ्चलता चेतनाकी चिन्मयतामें रूपान्तरित हो गयी। उन्होंने अपनी गतिशीलताको अन्तश्चेतनाके ऊर्ध्याकरणमें प्रयुक्त किया । वे जीवनकी अन्तनिहित शक्तियोंका स्फुरण करने लगे, जिससे राग-विद्वेषको विकृत्तियो स्पष्ट ज्ञात होने लगी। वे भीतर और बाहर इतने सुन्दर हो गये कि छिपानेको कुछ भी शेष नहीं रहा।
यों तो महावीरको संसारका प्रखर जान था। उनकी शाश्वत साधना अनेक जन्मोंको थी और वे अपने इस अन्तिम पड़ावमें सम्पूर्ण चराचर जगतकी अनन्त पर्यायोंक शाता-द्रष्टा बननेको उस्सुक थे। ___ योवनके आनेपर भी उनके जीवन में कोई महत्त्वपूर्ण घटना घटित नहीं हुई । अत्त: घटनाओंके घटाटोपमें उनके व्यक्तित्वकी तलाश करना व्यर्थ है । अगणित भवोंमें तारुण्यके आते ही अनेक घटनाएं घटित हुई थी, पर वे सभी पीछे छूट गयी थी। अब तो वे उस पथके नेता थे, जहां उन्हें पहंचना था, जो उन्हें स्पष्ट दिखलायी पड़ता था। ___इसमें सन्देह नहीं कि युवावस्थामें व्यक्तित्वको परिवर्तित करनेवाली घटनाएं घटती हैं और घटनाओंका आकार-प्रकार वैसा ही होता है, जैसी हमारी वासना और आकांक्षा | हम प्रत्येक युवकसे लोला-प्रिय होनेकी आशा करते हैं। घटनाओं और सन्द को उनके जीवन के साथ जोड़ना चाहते हैं। हमारे अपने संकल्प-विकल्प और विचार-वासनाएँ तरुणोंके जीवनमें घटनाओंका सृजन करती हैं । हम अपने विचारोंकी प्रतिनाया ही युवकोंके जीवन में देखना चाहते हैं । युवाकी स्वाभाविक और प्रखर कान्ति हमें सन्दर्भ-कल्पनाके लिये प्रेरित करती है।
युवावस्थाके रहनेपर भी महावीरका व्यक्तिस्व एक ओर जहां पुष्पकी तरह कोमल और सुरभित पा, वहाँ दूसरी ओर अग्निकी तरह जाज्वल्यमान् भी था। उनके व्यक्तित्व में चन्द्रमाके समान शीतलता और सूर्यक समान प्रखरताका समावेश था । वह गजकी तरह बलिष्ठ थे, तो वृषभकी तरह कर्मठ भी । उनका पराक्रम सिंहके समान निःशंक था। ११८ : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा