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इस आलोकसे ध्वनित होता है कि पावापुरका हस्तिपाल राजा था और उनकी रज्जुकशाला में महावीरका अन्तिम समवशरण हुआ था ।
महावीर जिस समय कालधर्मको प्राप्त हुए, उस समय चन्द्र नामक द्वित्तीय संवत्सर चल रहा था, प्रीतिवर्द्धन मास, नन्दिवद्धन पक्ष, अग्निवेश दिवस, देवानन्दा नामक रात्रि, अर्थ नामक क्षण, सिद्ध नामक स्तोक, नाग नामक करण सर्वाथसिद्धि मुहूत्तं एवं स्वाति नक्षत्रका योग था । ऐसे समय में तीर्थंकर महावोर निर्वाणको प्राप्त हुए ।
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महावीर के निर्वाणके समय सुर-असुर के साथ अनेक राजा भी उपस्थित थे । बताया है:
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'जं रर्याणि च णं समणे भगवं महावीरे कालगए जाथ सव्वदुक्खप्पहीणो सा रयणी बहूहि देवेहिय देवीहि य ओवयमाणेण य उप्पयमाणेह य उज्जोषिया यावि होत्या || १२४ ॥ '
'जं रयाणि च णं समणे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे तं रर्याणि च णं नव मल्लइ नव लिच्छई कासीको सलगा अट्टारस वि गणरायाणो अमावसाए पाराभोय पोहोचवासं पट्टबसु, गते से भावज्जोए दब्बुज्जोवं करिस्तामी ।। १२७|| "
अर्थात्, जिस रात्रि में श्रमण भगवान् महावीर कालधर्मको प्रप्त हुए, सम्पूर्ण दु.खसे छुटकारा प्राप्त किया, उस रात्रिमें बहुतसे देव और देवियां नीचे आ जा रहीं थीं, जिससे वह रात्रि उद्योतमयी हो गयी थी ।। १२४ ||
जिस रात्रिमें श्रमण भगवान् महावीर कालधर्मको प्राप्त हुए, सम्पूर्ण दुःखोंसे मुक्त हुए, उस रात्रिमें नौ मल्ल संघके, नो लिच्छवी संघके अर्थात् काशी- कोशलके अठारह गणराजा अमावस्याके दिन आठ प्रहका प्रोषधोपवास कर वहाँ स्थित थे । उन्होंने यह विचार किया कि भावोद्योत - ज्ञानरूपी प्रकाश चला गया है । अत: अब हम द्रव्योद्योत - दीपावलि प्रज्वलित करेंगे ।
कल्पसूत्र के उपर्युक्त उद्धरणोंसे निम्नलिखित निष्कर्षं प्रस्तुत होते हैं:( १ ) तीर्थंकर महावीरका निर्वाण, राजा हस्तिपालकी नगरी पावापुरीमें हुआ ।
( २ ) निर्वाणके समय नौ मल्लगण, नौ लिच्छवीगण इस प्रकार काशीकोशलके अट्ठारह गण राजा विद्यमान थे ।
( ३ ) अन्धकारके कारण दीपावलि प्रज्वलित की ।
१. कल्पसूत्र, सूत्र १२४ और १२७. (श्रीसमर आगम शोध संस्थान,
शिवना, राजस्थान )
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना २९७