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घटरूप कार्यके बनने में उपचरित कर्ताको आवश्यकता है, पर नदीके बहनरूप कार्यमें उपरित कर्ताको आवश्यकता नहीं है।
जीव परपदार्थाका कर्ता अपनेको नहीं मानता, यत: कर्ता माननेसे 'अहं' भावकी उत्पत्ति होती है तथा परकी इष्टानिष्ट परिणतिमें हर्ष-विषादको अनुभूति होती है और इस अनुभूतिके रहनेपर जीव अपने ज्ञाता-द्रष्टा स्वभावमें स्थिर नहीं हो पाता तथा मोहके प्रभावके कारण अपने स्वरूपसे व्युत होजाता है ! अतएव निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धको सर्वथा अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है।
यह सत्य है कि सब द्रव्य स्वभावसे परिणामो-नित्य हैं। प्रत्येक समयमें द्रन्धकी एक पर्यायका व्यय होना और नवीन पर्यायका उत्पाद होना ही उसका परिणाम-स्वभाव है। उत्पाद, व्यय निमित्तके रहनेपर तथा शुद्धावस्था निमित्तके नहीं मिलने पर भी होते रहते हैं । पर्यायरूपसे प्रत्येक ग्धका उत्पन्न होना और नष्ट होना यह उसका अपना स्वभाव है। इसमें षड्स्थानपतित हानि और षस्थानपतित वृद्धिरूपसे बत्तमान अनन्त अगरुलघुगण प्रयोजक हैं। इस प्रकार अशुद्धब्योम निमित्तपूर्वक पाय परिवर्तन होता है और शुद्ध द्रव्योंमें षड्गुणहानिवृद्धिको अपेक्षा पर्याय-परिवर्तन होता है। आत्मा शुनिश्चयनमकी अपेक्षा स्वभावका कर्ता आर निमित्त-नमत्तिकको अपेक्षा रागादिकमाव और पुद्गलद्रव्यके कर्मरूप परिणमनका कर्ता संभव है। अतएव निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धकी सर्वथा अवहेलना नहीं की जा सकती है । नयदृष्टिका अवलम्बन ग्रहण कर ही कतृत्वयभावका निश्चय करना उपादेय है। भोक्तत्वशक्ति : विवेचन
आत्मा फलोंका स्वयं भोक्ता है। यह असद्भूतव्यवहारनयको अपेक्षा पुद्गलकर्मफलोंका भोक्ता है । अन्तरंगमें साता, असाताका उदय होनेपर सुख-दुःखका यह अनुभव करता है। इसी साता-असाताके उदयसे बाहरमें उपलब्ध होनेवाले सुख-दुःखके साधनोंका उपभोग करता है। अशुद्ध निश्चयनयको अपेक्षा चेतनाके विकार रागादिभावोंका भोक्ता है और शुद्ध निश्चयनयको अपेक्षा शुब चैतन्यभावोंका भोक्ता है।'
वस्तुत: यात्माके हो कर्ता और मोक्सा होनेके कारण संसारकी कोई भी परोक्ष शक्ति जीवके लिये किसी प्रकारका कार्य नहीं करती है। जीव स्वयं अपने मावोंका कर्ता-भोक्ता है। किसी दूसरी शक्तिके द्वारा इसे फलकी प्राप्ति १. बबहारा मुहले पुग्गछकम्मप्पा पमुंजेदि।
बाबा जिल्हयगयको पक्षमा वापस ॥ -मसंग्रह, भाषा ९. . m: सीकर महागीर और डीवापा-परम्परा