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हो । जीवके योग और उपयोग ही उनके कर्ता है।"
आत्मा घटादि और क्रोधादिपरद्रव्यात्मक कर्मोंका का न तो व्याप्यव्यापकभावसे है और न निमित्त-नैमित्तिकमावसे हो; पर अनित्य योग और उपयोग ही घट-पटादि द्रव्योंके निमित्तकर्ता हैं। जब आत्मा ऐसा विकल्प करती है कि मैं घटको बनाऊँ, तब काययोगके द्वारा आत्म-प्रदेशों में चञ्चलता आती है और चञ्चलताको निमित्तता पाकर हस्तादिके व्यापार द्वारा दण्डसे चक्रका परिभ्रमण होता है और इससे घटादिकी निष्पत्ति होती है। ये विकल्प और योग अनित्य हैं, अज्ञानवश आत्मा इनका कर्ता हो भी सकती है, परन्तु परद्रश्यात्मक कर्मोका कदापि संभव नहीं।
तथ्य यह है कि निमित्तके दो भेद हैं:-(१) साक्षात् निमित्त और (२) परम्परा निमित्त । कुम्भकार अपने योग और उपयोगका कर्ता है, यह साक्षात् निमित्तकी अपेक्षा कथन है । यतः इनके साथ कुम्भकारका साक्षात् सम्बन्ध है
और कुम्भकारके योग एवं उपयोगसे दण्ड-चक्रादि द्वारा घटकी उत्पत्ति परम्परानिमित्तको सो ! जब मारा-मिपिनो टोनेवाले निमित्त-नैमित्तिकको गौण कर कथन किया जाता है, तब जीवको घट-पटादिका कर्त्ता नहीं माना जाता । किन्तु जब परम्परा-निमित्तसे होनेवाले निमित्त-नैमित्तिक भावको प्रमुखता दी जातो है, तब जीवको घट-पटादिका कर्ता कहा जाता है ।
घटका कर्ता कुम्भकार, पटका कर्ता कुविन्द और रथका कर्ता बढ़ईको न माना जाय तो लोकविरुद्ध कथन हो जायगा 1 पर यथार्थमें वे अपने-अपने योग और उपयोगके ही कर्ता होते हैं। लोकमें उनका कर्तृत्व परम्परा-निमित्तकी अपेक्षा ही संगत होता है।
अभिप्राय यह है कि संसारके सभी पदार्थ अपने-अपने भावके कर्ता हैं, परभावका का कोई पदार्थ नहीं । कुम्भकार घट बनानेरूप अपनी क्रियाका कर्ता है । व्यवहारमें जो कुम्भकारको घटका का कहते हैं, वह केवल उपचार मात्र है। घट बनने रूप क्रियाका कर्ता घट हैं। घटका बननेरूप किया। कुम्भकार सहायक निमित्त है । इस सहायक निमित्तको ही उपचारसे कर्ता कहा जाता है । वस्तुत: कर्ताके दो भेद हैं:-(१) वास्तविक की ओर (२) उपचारित फर्ता। क्रियाका उपादान ही वास्तविक कर्ता है। अतः कोई भी क्रिया वास्तविक कर्ताके विना संभव नहीं । उपचरित क के लिए यह नियम नहीं है । यथा, १. जीवो ण करैदि घई व पडं णेव सेसगे दवे ।। जोगवओगा उप्पादगा य तेसि हवदि कसा॥
-समय०, गाथा १००.
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ३४३