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दृष्टि अपेक्षित है । स्यावाद उस दृष्टिको वाणीद्वारा व्यक्त करनेकी भाषापद्धति है। वह निमित्त या अपेक्षाभेदसे वस्तुगत विरोधो धर्म-युगलोंका विरोध मिटाने वाला है । जो वस्तु सत् है वह असत् भी है, पर जिस रूपमें सत् है उस रूपमें असत् नहीं | स्व-रूपको दृष्टिसे सत् है और पर-स्वरूपकी दृष्टिसे असत् है। दो निश्चित दृष्टिबिन्दुओंके आधारपर वस्तुतस्चका प्रतिपादन करनेवाला वाक्य संशयरूप हो ही नहीं सकता। अर्थनियामक निक्षेप __ संकेत-कालमें जिस वस्तुके लिये जो शब्द प्रयुक्त होता है वह वहीं रहे तो कोई समस्या नहीं आती; किन्तु ऐसा होता नहीं, अतः कुछ समयके पश्चात् शब्द अपने लिये विशाल क्षेत्रका निर्माण करते हैं। इससे नियस शब्दको इष्टार्थसम्बन्धी जानकारी देनेकी क्षमता समाप्त हो जाती है। इस समस्याका समाधान निक्षेपपद्धति द्वारा किया गया है। यह भाषा-सम्बन्धी नीति है। यतः विश्यके व्यवहार और ज्ञानके आदान-प्रदानका मुख्य साधन भाषा है। भाषाके बिना मनुष्यका व्यवहार चल नहीं सकता और न विचारोंका आदान-प्रदान ही हो सकता है | मनुष्यके पास यदि व्यक्त भाषाका साधन न होता, तो उसे आज जो सभ्यता-संस्कृति एवं तत्वज्ञानकी अमूल्य निधि प्राप्त है उससे वह वंचित रह जाता । माषा केवल बोलनेका ही साधन नहीं है अपित विचार करनेका भी माध्यम है। भाषाका शरीर वाक्यों से निर्मित होता है और वाक्य शब्दोंसे। प्रत्येक शब्दके अनेक अर्थ सम्भव हैं। वह प्रसंग आशय, विषय, स्थान एवं वातावरणके अनुसार विभिन्न प्रकारके अभिप्रायोंको व्यक्त करता है। अतएव शब्दके मूल और उचित अर्थको जानकारी निक्षेपविधि द्वारा सम्पन्न की जाती है। ___मानव-विचारधाराके कुछ ऐसे दुरुह प्रसंग हैं, जो सामान्यतः व्यक्तियोंके मस्तिष्कमें सुलभतासे प्रवेश नहीं कर पाते । इसलिये कुछ चिन्तकोंने उन प्रसंगों का व्यक्तीकरण कर उन्हें बोधगम्य बनानेका प्रयास किया है। इसके लिए उन्हें कुछ प्रतीकोंका आश्रय लेना पड़ा । इन प्रतीकोंको संज्ञा ही निक्षेप है।
इन निक्षेपों द्वारा प्रकृतिके कुछ तथ्योंको उनकी अनुपस्थिति में दूसरोंको उनका अनुभव कराया जाता है। निक्षेपों द्वारा प्राप्त ज्ञान प्रत्यक्ष तो नहीं होता, पर सादृश्यको स्मृतियोंके जागरण द्वारा व्यक्तियों की योग्यतानुसार वस्तुके स्वरूपके बोधमें बहुत सीमा तक सहायक अवश्य होता है। इस प्रतीकात्मक व्यक्तीकरणकी प्रकृतिके कारण साहित्यमें नानाविधाएँ आविष्कृत हुई और यही प्रतीकात्मक व्यञ्जना-प्रणाली निक्षेपके रूपमें प्रस्तुत हई । वस्तुतः प्रस्तुत
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : ४८१