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पोद्गलिक वस्तुएँ हैं। उसी प्रकार कर्मके संयोगसे भी आत्माको विमिन्न अवस्थाएँ प्रकट होती हैं। अतएव यह भी योद्गलिक है। बेड़ी आदि बन्धन आज बाहरो बन्धन है और अल्प सामर्थ्य वाले हैं। कर्म आस्माके साथ चिपके हुए तथा अधिक सामयं वाले सूक्ष्म स्कन्ध हैं। अतएव उनकी अपेक्षा कर्मपरमाणुओंका जीवात्मापर गहरा और आन्तरिक प्रभाव पड़ता है।
शरीर पौद्गलिक है। उसका कारण कर्म है। अतः कर्म पौद्गलिक है । पोद्गलिक काका सम्पामो कारण पालक होगा । आहार आदि अनुकूल सामग्रीसे सुखानुभूति और शस्त्र प्रहारादिसे दुःखानुभूति होती है । आहार और शस्त्र पौद्ल क हैं, इसी प्रकार सुख-दुःखके हेतुभूत कर्म भी पौदगलिक हैं।
बन्धको अपेक्षा जीव और पुद्गल अभिन्न हैं, एकमेक है। लक्षणको अपेक्षा वे भिन्न हैं। जीव चेतन है और पुद्गल अचेतन। जीव अमूर्त है और पुद्गल मूर्त। इन्द्रियोंके विषय स्पर्शादि मर्त है और इन विषयोंको भोगने बाली इन्द्रियाँ भी मूर्त हैं । अतः उनसे होनेवाला सुख-दुःख भी मूर्त हैं। इस प्रकार कम पौद्गलिक सिद्ध होते हैं। मात्मा और कर्मका सम्बन्ध
आत्मा अमूर्त है, तब उसका मूर्त कर्मसे कैसे सम्बन्ध हो सकता है ? यतः मूर्तिकके साथ मूर्तिकका बन्ध तो सम्भव है, पर अमूर्तिकके साथ मूर्तिकका बन्ध कैसे हो सकेगा ? अनादि कालसे कर्मबद्ध विकारी आत्मा ही दिखलाई पड़ती है । ये आत्माएं कथंचिद् मूर्त हैं, क्योंकि स्वरूपतः अमूर्त होते हुए भी संसारदशामें मूर्त हैं। जीव दो प्रकारके हैं:-रूपी और अरूपी | मुक्त जीव अरूपी हैं और संसारी रूपी । जो आत्मा शुद्ध हो जाती है, वह फिर कर्मबन्धनमें नहीं पड़ती है । जीव और कर्मका अनादि सम्बन्ध है । यतः जो जीव संसारमें स्थित है-जन्म-मरणको धारामें पड़ा हुआ है, उसके रागरूप और द्वेषरूप परिणाम होते हैं। इन परिणामोंसे नये कर्म बंधते हैं। कर्मों से गतियोंमें जन्म लेना पड़ता है । जन्म लेनेसे शरीर प्राप्त होता है. शरीरमें इन्द्रियाँ होती हैं, इन्द्रियोंसे विषयोंका ग्रहण होता है, विषयोंको ग्रहण करनेसे इष्ट वस्तुओंमें राग और अनिष्ट वस्तुओंसे द्वेष होता है। इस प्रकार संसाररूपी चक्रमें पड़े हुए जीवके भावोंसे कर्मबन्ध और कर्म बन्धसे राग-द्वेषरूप भाव होते हैं। यह संसारचक्र अभव्य जीवकी अपेक्षासे अनादि अनन्त है और भव्य जीवकी अपेक्षासे अनादि-सान्त है।' 1. जो खलु संसारत्यो जीवो तत्तो दु होबि परिफामो ।
परिगामादो कम्म कम्मायो होवि मविसु गदी ॥ ३८० : सीकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा