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सारांश यह है कि यह वात्मा मनादिसे अशुद्ध है और प्रयोग द्वारा शुद्ध हो सकती है। कम एक भौतिक पिण्ड है, यह विशिष्ट शक्तिका स्रोत है । जब यह बारमासे सम्बद्ध होता है, तो उसकी सूक्ष्म और तोत्र शक्तिके अनुसार बाह्य पदार्थ भी प्रभावित होते हैं तथा प्राप्त सामग्रीके अनुसार उस संचित कर्मका तीव, मन्द और मध्यम आदि फल मिलता है। इस प्रकार यह कर्मचक्र अनादिकालसे चल रहा है और तब तक चलता रहेगा, जब तक बन्धफारक मूल रागादि वासनाओंका विनाश नहीं होगा। ___ व्यवहारको अपेक्षा यह जीव मूत्तिक है तथा राग-द्वेषादिवासनाएं और पुद्गलकर्मबन्धको धारा बीज-वृक्षासन्ततिकी तरह अनादिसे चालू है। पूर्व संचित कमके उदयसे राग-द्वेषादि उत्पन्न होते हैं और तत्काल में जो जीवकी आसक्ति या लगन होती है, वह नूतन कर्मबन्ध कराती है।
समान क्षेत्रमें रहनेवाले जीवके विकारी परिणामको निमित्तमात्र करके कामणवर्गणाएं स्वयमेव अपनी अन्तरंग शक्तिके कारण कर्मरूपमें परिणमित हो जाती हैं। लोकमें जीव और कर्मबन्धके योग्य पुद्गलवर्गणाएं सर्वत्र हैं, जीवके जैसे परिणाम होते हैं, उसी प्रकारका कर्मबन्ध होता है। अतएव अनादिसन्ततिरूप प्रवत्र्तमान देहान्तररूप परिवर्तनका आश्रय लेकर शरीरका निर्माण होता है और इससे कमका बन्ध होता है। कर्मक मूलमेव
कर्मके दो भेद हैं:-(१) द्रव्यकर्म और (२) भायकर्म । जीवसे सम्बद्ध कर्मपुद्गलोंको द्रव्यकम कहते हैं और द्रव्यकर्मके प्रभावसे होनेवाले जीवके रागद्वेषरूप भावोंको भावकर्म कहते हैं। द्रव्यकर्म और भावकर्ममें कारण-कार्यका सम्बन्ध है; व्यकम कारण है और भावकर्म कार्य | न बिना द्रव्यकमके भाव
अदिपिंगवस्स बेहो बेहाको इन्धिमागि जायते । देहि दु विसमगहगं तत्तो रामो वा दोसो वा ॥ पायदि बीवस्सेवं भावो संसारमकवालम्मि । इदि जिगवरहि भगिदो अगादिगियनो सभिषणो वा॥
-पंपास्तिकाय पापा, १२८-११०. १. कम्मरणपाओग्या संषा जीवस्स परिचई पप्पा । मच्छति कम्मभावं प हि ते कोण परिणामिया ॥
-प्रवचनसार गा० १९९.
वीकर महापौर और उनकी वेशना : ३८१