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करुणाका सरोवर उत्पन्न हो गया । इस प्रकार भगवान् महावीरकी जीवात्मा. ने आत्मोत्थानकी साधना इस भिल्लपर्यायसे प्रारम्भ की। इस पर्याय में उसने श्रावकके द्वादश व्रतोंका अभ्यास किया ! आयुके अन्त में भोलका जीव इस नश्वर शरीरको छोड़कर स्वर्गमें देव हुआ। पूर्व संस्कार वश वह स्वर्गके दिव्य भोगोंमें आसक्त नहीं हुआ, किन्तु धर्माराधनामें समय व्यतीत करता रहा । सौधर्म स्वर्गकी आयु समाप्त कर वह जीय भारतवर्षके आदि चक्रवर्ती भरतका 'मरीचि' नामक पुत्र हुआ।
मरीचि आदि तीर्थंकर ऋषभदेवके माही दिगम्बर मनि हो गये, किन्तु वे तपस्वी जोवनको कठिनाईयोंको सहन न कर सके । मरीचि वन में रहकर अपने शरीरकी शीत-आतपसे रक्षा करता हुआ, बनके फल खाकर समय व्यतोत करता रहा ! वह रत्नत्रयके मार्गपर दृढ़ न रह सका और उस मागसे च्युत हो एक मिथ्या सम्प्रदायके प्रचारमें संलग्न हो गया । सत्यकी ओर वह बढ़ा हुआ, बीच में ही रुक गया। उसका जीवनपरीषहोंके झटकोंको सह नहीं सका। फलतः वह विचलित हो गया।
पुरुरवाके जन्ममें जो संस्कार अजित किये थे, वे अब धूमिल होने लगे । जीवनका यथार्थ अर्थ उसके नेत्रोंसे ओमल होने लगा। जहाँ शरीर आत्माके लिये होता है, आध्यात्मिक विकासमें सहयोग प्रदान करता है, वहां जीवन प्राणवान बन जाता है। इसके विपरीत जहाँ शरीर अपने आपमें साध्य बन जाता है, आरमाके विकासको उपेक्षाकी जाती है, वहाँ चेतनके स्थान पर जड़की प्रतिष्ठा हो जाती है। विश्वास, विचार और आचार इन तीनोंका सम्यक होना आवश्यक है । मरीचि सम्यक् आचार-विचार और श्रद्धाको छोड़ काय-क्लेशमें प्रवृत्त हुआ । वह पंचाग्नि तप करता तथा सूर्यके समक्ष दृष्टि कर एक पैर पर खड़ा होकर दिनभर तपश्चरण संलग्न रहता । अज्ञानतापूर्वक किया गया सप भी किंचित् फल देता है । अतएव काय-क्लेशके प्रभावसे मरोधिने मरकर ब्रह्मस्वर्ग में देवपर्याय प्राप्त किया। अब वह अहिंसा-संस्कारसे दूर भटक गया था, भोगोंमें मग्न रह रहा था । वहाँसे भोग भोगकर महाबोरके इस जीवने मनुष्यपर्याय प्राप्त किया। महावीर : जटिलपर्याय : पतनको भोर
महावीरका यह जीव ब्रह्मस्वर्गसे च्युत होकर अयोध्या नगरीमें कपिल बाह्मणके यहाँ जटिल नामक पुत्र हुआ ! कपिलकी स्त्रीका नाम कालो था। इन दोनोंको जटिलके प्रति अपूर्व ममता थी। जटिलने वेद-स्मृति आदि ग्रन्योंका २८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा