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नहीं है वनदेवता हैं। यदि जंगली जानवर होता, तो उसकी इतनी शान्त चेष्टा नहीं हो सकती थी।" पुरुरवा आश्चर्य चकित हो गया और वह उस झुरमुटकी ओर चला । वहाँ उसने पहुंच कर देखा कि एक मुनि ध्यानस्य हैं । पतिपत्नीने भक्ति विभोर होकर मुनिकी वन्दनाकी और फल-पुष्पोंसे अर्चना की। इन निम्रन्थ योगिराजका नाम सागरसेन था। ध्यानसमाधि टूटनेपर मुनिराज ने पुरुरवाको निकट भव्य जान धर्मोपदेश देना प्रारम्भ किया-'भिल्लराज ! क्यों मोहमें पड़े हो ? निरीह प्राणियोंकी हिंसा करते हुए तुम्हें कष्ट नहीं होता? दुःखका कारण हिंसा, झूठ, चोरो आदि पाप हैं । यदि तुम अपने जीवनकीधाराको परिवर्तित कर दो, तो सुख-शांति प्राप्त करने में तनिक भी कठिनाई न हो । तुम इस शरीरको अपना मानते हो, यह भ्रान्ति है। यह शरीर तो यहीं रह जाता है-मिट्टी में मिल जाता है। इस शरीर-मन्दिरमें जो बोलता हुआ हस है, नह उह जाता है ! वर हंस तम हो । अतएव तुम अमर हो, शरीरके नाश होनेपर भी तुम रहोगे । फिर इस शरीरसे क्यों मोह करते हो ? क्यों प्राणियोंकी हिंसामें संलग्न हो ? पथिकोंको लूट कर उनका सर्वस्व अपहरण करना क्या उचित है।"
मनोविज्ञानी मुनिराजने भिल्लराजके मनको पुनः झकझोरते हुए कहा"मनुष्य-अन्म पाना दुर्लभ है । इस दुर्लभ रत्नको प्राप्त कर हिंसा और चोरीमें संलग्न रहना ठीक नहीं है।"मिलराज कहने लगा-"महाराज ! में भिल्लोंका सरदार हूँ। मेरे साथी जो लूट-पाट कर लाते हैं, उसमें मेरा हिस्सा रहता है। मैं हिंस्र जीवोंको मारकर मार्गको निरापद बनाता हूँ।" मुनिराज कहने लगे-"अरे, भोले जीव ! तुम नहीं समझते हो कि पापाचरणमें कोई किसीका साथी नहीं होता है। पाप कमी सुखका कारण नहीं बन सकते । इनके सेवनसे अन्तरात्मा कलुषित हो जाती है और व्यक्ति अपने निज स्वरूपको भूल जाता है । यह मोहोदयका परिणाम है कि आपके मुख से इस प्रकारकी बातें निकल रही हैं। सात्त्विक प्रवृत्तिको प्रत्येक व्यक्ति सुखप्रद मानता है। जो पापका सेवन करता है, उसको राजदण्ड, समाजदण्ड और आतिदण्ड प्राप्त होता है । हिंसा कभी सुखदायक नहीं हो सकतो।"
भिल्लराज मुनिके उपदेशसे अत्यधिक प्रभावित हुआ। उसने पत्नी सहित मुनिराजसे अहिंसाणवत ग्रहण किया और उसका तत्परता पूर्वक पालन किया । अहिंसक आचरणसे पुरुरवाका जीवन ही बदल गया, वह समभावी बन गया । जो जीव-जन्तु पहले उसके पास आते हुए भयभीत रहते थे, वे अब निर्भय होकर पास आने लगे और उससे प्यार करने लगे | भिल्ल राजके हृदयमें दया और
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : २७