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अध्ययन कर पूर्ण पाण्डित्य प्राप्त किया और कुमारावस्थामें ही संसार छोड़ संन्यास मार्ग ग्रहण किया । जटिल आगमका विरुद्ध अर्थकर लोगोंको कुमार्गकी शिक्षा देता और उन्हें एकान्त मार्गपर चलनेके लिये प्रेरित करता । जटिलने संन्यासी अवस्था में अनेक प्रकारका बुद्ध र तपश्चरण किया, पर उसकी साधना आध्यात्मिकतासे शून्य थी। वह अज्ञानतापूर्वक कठोर तपश्चरण करता रहा । आत्मा और परमात्मा के परिज्ञानके अभाव में उसको साघना सफल नहीं हो सकी। फलतः वह साधना की अपूर्णता के कारण आयुका अन्त कर स्वर्ग में प्रथम देव हुआ ।
पुरुरवापर्याय में अहिंसाका जो बीज वपन हुआ था, वह अभीतक अंकुरित न हो सका और महावीरका वह जीव उत्पानसे पतनकी ओर गतिशील होने लगा । यह सत्य है कि त्याग द्वारा अर्जित संस्कारोंका कभी विनाश नहीं होता। यही कारण है कि इस जीवने भी संन्यास - मार्ग ग्रहणकर मिथ्या तपाचरण किया, पर अन्तरात्मामें स्थित संस्कार कभी-कभी जोर मारते रहे।
पुष्यमित्रपर्याय : अगतिशीलता
महावीरका वह जीव सौधमं स्वर्गसे च्युत हो अयोध्यापुरीके स्थूणागार नगरमें भारद्वाज नामक ब्राह्मण और उनकी पुष्पदत्ता नामक पत्नीसे पुष्यमित्र नामक पुत्र हुआ। पुष्योदयके कारण पुष्यमित्रका पालन-पोषण समृद्धरूप में सम्पन्न हुआ । उसने संस्कारवश घोड़े ही दिनोंमें वेद-पुराण आदि प्रत्योंका अध्ययन किया । पुष्यमित्रका विवाह समारोहपूर्वक सम्पन्न हुआ। कुछ दिनोंतक वह सांसारिक सुख भोगता रहा । पत्नीका स्वर्गवास हो जानेके कारण उसके मनमें विरक्ति उत्पन्न हुई। मिथ्यात्वके उदयसे वह 'आत्म' परिणतिका त्याग कर 'पर' - परिणति में प्रवृत्त हुआ । अपनी आत्माकी परमज्योतिको वह भूल गया फलतः उसके समस्त कार्य अध्यात्मपोषक न होकर शरीरपोषक हो होने लगे । फलस्वरूप कठोर साधना करनेपर भी शारीरिक कष्टके अतिरिक्त अन्य कोई उपलब्धि न हो सकी । कष्टसहिष्णुता के कारण मन्द कषाय होनेसे उसने देव आयुका बन्ध किया और फलस्वरूप स्वर्ग में प्रथम देव हुआ । इस देवपर्यायमें कर्मोदयसे प्राप्त संसार के सुखों का उपयोग करता रहा। सुखसामग्रीका जितना आधिक्य उसे उपलब्ध होता, उतनी ही उसकी बेचैनी बढ़ती जाती थी । अतएव देवगति के सुखोंका उपभोग करते हुए भी उसे एक क्षणके लिये भी शान्ति प्राप्त न हुई । मरीचिके भवसे अगतिशीलताकी जो स्थिति उत्पन्न हुई थी, वह ज्योंकी त्यों बनी रही । मज्ञानपूर्वक किये गये तपने जीवन में न कोई गति उत्पन्न की और न किसी आलोकको ही प्रादुर्भूत होने दिया । विकासकी अपेक्षा ह्रास ही उत्पन्न होता रहा । अर्जित संस्कार अज्ञानतामें दबने लगे ।
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तीर्थंकर महावीर और उनको देशना : २९