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चायक प्रत्यभिज्ञान आदि भी प्रत्यक्ष और स्मरणके संकलनसे घटित होते हैं । आशय यह है कि 'दर्शन' और 'स्मरण' को निमित्त बनाकर जितने भी एकत्यादि विषयक मानसिक संकलन होते हैं, वे सभी प्रत्यभिज्ञान है और ये सभो प्रकारके प्रत्यभिज्ञान अपने विषयमें अविसंवादी और समारोपव्यवच्छेदक होनेसे प्रमाण हैं । यथार्थत: यह ज्ञान न तो अप्रमाण है और न प्रत्यक्षप्रमाण ही हैं। किन्तु यह और स्वके अनन्तर उत्पन्न होनेवाला और 'पूर्व' एवं 'उत्तर' पर्यायोंमें रहनेवाले एकत्व, सादृश्य आदिको विषय करनेवाला होनेसे स्वतन्त्र परोक्षप्रमाण है । "
यदि प्रत्यभिज्ञानका लोप किया जाय, तो अनुमानको प्रवृत्ति नहीं हो सकती है । जिस व्यक्तिने पहले अग्नि और घूमके कार्य कारणभावका ग्रहण किया है, बही व्यक्ति जब पूर्व धूमके सदृश अन्य धूएँको देखता है, तब ग्रहीत कार्यकारणभावका स्मरण आनेपर ही अनुमान कर पाता है। प्रत्यभिज्ञानके न सादृश्य और विलमानने से न तो अनुमानकी ही सिद्धि होगी और न एकत्व, क्षण आदि प्रत्यय ही घटित हो सकेंगे ।
प्रत्यभिज्ञानका प्रत्यक्षमें भी अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता है । यतः चक्षु आदि इन्द्रियाँ सम्बद्ध और वर्त्तमान पदार्थको ही विषय करती हैं । अतः ये स्मृतिकी सहायता लेकर भी अविषयमें प्रवृत्ति नहीं कर सकतीं । 'पूर्व' और 'उत्तर' पर्यायमें रहनेवाला एकत्व इन्द्रियोंका अविषय है । यदि इन्द्रियाँ अविषयको ग्रहण करें, तो गन्ध - स्मरणकी सहायतासे चक्षुको गन्धका भी परिज्ञान हो जाना चाहिए । सैकड़ों सहकारी मिलने पर भी अविषय में प्रवृत्ति नहीं हो सकती । यदि इन्द्रियोंसे ही प्रत्यभिज्ञान उत्पन्न होता है, तो प्रथम प्रत्यक्ष कालमें ही उसे उत्पन्न होना चाहिये था ।
' स एवायम्' इस प्रतीतिको एक ज्ञान मानकर भी उसे इन्द्रियजन्य नहीं कहा जा सकता । अतएब इसे स्मरण और प्रत्यक्षपूर्वक होनेवाला संकलनात्मक स्वतन्त्र ज्ञान मानना पड़ेगा। यह अबाधित है, अविसंवादी है और है समारोपका
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स्मरणप्रत्यक्ष जम्यस्य पूर्वोत्तर वियतं वयेकद्रव्यविषयस्य प्रत्यभिशामस्यैकस्य तस्यातीतविवत्तमात्रसुप्रतीतत्वात् । न हि तदिति स्मरणं तथाविधद्रभ्यव्यवसायात्मक, गोचरत्वात्। नापोषमिति संवेदनं, तस्य वत्तंमानविवसंमात्रविषयत्वात् । ताम्यामुपजन्यं
རྒྱུུ
संकलनशानं तदनुषादपुरस्सरं द्रव्यं प्रत्यवमृशत् ततोऽन्यदेव प्रत्यमिश्रानमेकत्व - विषयं तदपह्नवे क्वचिदेकान्वथाव्यवस्थानात् सम्यानकत्व सिद्धिरपि न स्यात् ।
- प्रमाणपरीक्षा, पृ० ६९, ७०.
४३८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा