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इन्द्राणी प्रसूतिगृहमें पहुंची और उसने माताको सान्त्वनाके हेतु मायामयी बालक वहाँ सुला दिया और तीपंकर वर्धमानको गोदमें लेकर बाहर बायी। उसने शिशुको सौधर्म इन्द्रको सौंप दिया | इन्द्रने ऐरावत हाथीपर सवार हो समस्त देव-परिवारके साथ सुमेरु पर्वतकी रत्नमयी पाण्डक शिलापर शिशुको विराजमान किया और क्षीरोदपिके निर्मल जलसे अभिषेक किया |
अभिषेकके अनन्तर इन्द्राणीने शिशु के देहको पोंछा । जब वह कपोलप्रदेशपर लगे हुए जल-बिन्दुओंको सुखाने में प्रवृत्त हुई, तो उसे एक विलक्षण दृश्य दिखलायी पड़ा । जैसे-जैसे वह जलबिन्दुओंको पोंछती वैसे-वैसे बलबिन्दुओं की संख्या बढ़ती जाती । इन्द्राणीके समक्ष अजीब असमंजसताकी स्थिति यो । अन्ततः उसने अनुभव किया कि ये जलबिन्दु नहीं, अपितु दबसे स्निग्ध निर्मल कपोलपर स्थित आभूषणोंका प्रतिबिम्ब है। उसने इतना सुन्दर शिक्षु अभी तक देखा ही नहीं था । उसके नेत्र लज्जासे झुकने लगे।
अभिषेकके अनन्तर शिशुको घस्वाभरण पहनाये गये, दिव्य एवं सुगन्धित मालाओंसे उन्हें आभूषित किया गया । नम्रीभूत हो सुरेन्द्रने उनको स्तुति की। जब इन्द्रकी दृष्टि शिशुके दक्षिण पगपर पड़ी, तो सिंहका चिह्न देखकर और उसे भावी पुरुषार्षका प्रतीक समझकर उनका चिह्न 'सिंह' स्थिर किया ।
अभिषेकके पश्चात् इन्द्र उन्हें वैशालीके राजमार्गोसे कुण्डग्राम लाया और इन्द्राणीने पूर्ववत् प्रसूति गृहमें जाकर शिशुको माता प्रियकारिणीके पाश्वमें सुला दिया।
शिशु महावीरके अन्मसे हो राजा सिवाका बल-वैभव बढ़ने लगा। उनकी कोत्ति व्याप्त होने लगी। सब भोर महाराज सिद्धार्थ एक उदाराशय राजाके नामसे प्रसिद्ध हुए। बतएव महाराज सिद्धार्थने अपने समस्त बन्धु-बान्धव और इष्ट-मित्रोंको आमंत्रित कर वीर बालकका नामकरण-उत्सव सम्पन्न किया। वे कहने लगे-"यह शिशु महामाम है । जिस दिनसे महारानी प्रियकारिणीके गर्भ में आया, उसी दिनसे घर, नगर और राज्यमें धन-धान्यको समृद्धि हुई है। अतएव इस बालकका साधक नाम वर्षमान रखा जाय।" उपस्थित जन-समुदायने राजा सिद्धाधके इस प्रस्तावका अनुमोदन किया और वीर बालक 'वर्षमान' नामसे प्रसिद्ध इमा'। १. सिद्वार्षप्रियकारिण्योः सममानन्ददायकम् ।
वर्षमानास्पया स्तुस्वा सदेवो वासवोऽगमत् ॥ -हरिबंशपुरान, राw. १०६ : तीर्थकर मावीर और समकी गापार्य-परम्परा