________________
बतलाया है कि तीर्थकरका वचनामृत संसारके समस्त प्राणियोंको अपनी-अपनी भाषामें तृप्त करता है। अलंकार-चिन्तामणिमें भी इसे सर्वभाषात्मक, असीम सुखप्रद और समस्त नयोंसे युक्त बतलाया है।'
घवलाटीफामें आचार्य वीरसेनने लिखा है-"योजनान्तरदूरसमीपस्थाष्टादशभाषा - सप्सहतशतकुभाषायुत-तिर्यग्देवमनुष्यभाषाकारल्यूनाधिक-भावातोतमधुरमनोहरगम्भीरविशदधागतिशयसम्पनः भवनवासिवाणव्यन्तर-ज्यो. तिष्क-कल्पवासीन्द्र - विद्याधर-चक्रवर्ति-बल-नारायण-राजाधिराज-महाराजार्घमहामण्डलीकेन्द्राग्नि-वायु-भूति-सिंह-व्यालादि-देव - विद्याधर-मनुष्यषि - तियंगिन्द्रेभ्यः प्राप्तपूजातिशयो महावीरोऽर्थकर्ता।" ___ अर्थात् एक योजनके भीतर दूर अथवा समीपमें बैठे हुए अठारह महाभाषा और सात-सौ लघु भाषाओंसे युक्त तिर्यंच, मनुष्य और देवोंकी भाषाके रूपमें परिणत होनेवाली तथा न्यूनता और अधिकतासे रहित मधुर, मनोहर, गम्भीर और विशद भाषाके अतिशयोंसे युक्त तीर्थकरकी दिव्यध्वनि होती है।
महापुराणमें आचार्य जिनसेनने भी इसे अशेषभाषात्मक कहा है । अतिशयविशेषके कारण यह दिव्यध्वनि समस्त भावरूपों परिणमन करती है। स्याद्वादरूपी अमृतसे युक्त होनेके कारण समस्त प्राणियोंके हृदयान्धकारको नष्ट करती है।
महापुराणमें यह भी बताया गया है कि दिव्यध्वनि एकरूपमें होती हुई भी तीर्थंकर-प्रकृतिके पुण्य प्रभावसे समस्त मनुष्यों और पशु-पक्षियोंको संकेतात्मक भाषामें परिणत हो जाती हैं ।
निष्कर्ष यह है कि दिव्यध्वनि, ध्वनिरूप होती है और अगरह महाभाषा तथा सात-सौ कुभाषारूप परिणमन करती है। यह अक्षर और अनक्षर स्वरूप १. अलंकार-चिन्तामणि, भारतीय ज्ञानपीठ-संस्करण १।१०२. २. षट्खण्डागम, यवलाटीका-समन्वित, अषम जिल्द, १० ६१. ३. त्वरिव्यवागियमघोषपदार्थगर्भा भाषान्तराणि सकलानि नियन्ती । सत्शवयोषमचिरात् कुरुते बुधानां स्यादादनीतिविहतान्धमतान्धकारा ।।
-आदिपराण २३॥१५४: ४. एकतयोऽपि च सर्वनभाषा: स्रोऽन्तरनेष्टबहप कुभाषाः । अप्रपिपत्तिमपास्य व तस्वं बोधयति स्म जिनस्य महिम्ना ।।
--आदिपुराण २३१७०. तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : २३७