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________________ है । जिस समाज में अनुशासनका प्रभाव रहता है वह समाज कभी भी विकसित नहीं हो पाता । अनुशासित परिवार ही समाजको गतिशील बनाता है, प्रोत्साहित करता है और आदर्श की प्रतिष्ठा करता है। संघर्षोंका मूलकारण उच्छूखलता या उदण्डता है । जबतक जीवनमें उदण्डता आदि दुर्गुण समाविष्ट रहेंगे, सक्तक सुगठित समाजका निर्माण सम्भव नहीं है । समाज और परिवारको प्रमुख समस्याओं का समाधान भी अनुशासन द्वारा ही सम्भव है। शासन और शासित सभीका व्यवहार उन्मुक्त या उच्छ्रङ्खलित हो रहा है। अतः अतिचारी और अनियन्त्रित प्रवृत्तियों को अनुशासित करना आवश्यक है । अनुशासनका सामान्य अर्थ है कतिपय नियमों, सिद्धान्तों आदि का परिपालन करना और किसी भी स्थितिमें उसका उलंघन न करना । संक्षेपमें वह विधान, जो व्यक्ति, परिवार और समाजके द्वारा पूर्णतः आचरित होता है, अनुशासन कहा जाता है। जीवनके प्रत्येक क्षेत्र में सुव्यवस्थाकी अनिवार्य आवश्यकताको कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता। इसके बिना मानव समाज चिलकुल विघटित हो जाएगा और जो भी व्यवस्था नहीं बन सकेगी । जो व्यक्ति स्वेच्छा से अनुशासनका निर्वाह करता है, वह परिवार और समाजके लिए एक आदर्श उपस्थित करता है। जोवनके विशाल भवनको नीव अनुशासनपर हो अवलम्बित है | पारस्परिक द्वेषभाव, गुटबन्दी, वर्गभेद, जातिभेद आदि अनुशासनहीनताको बढ़ावा देते हैं और सामाजिक संगठनको शिथिल बनाते हैं । अतएव सहज और स्वाभाविक कर्त्तव्य के अन्तर्गगत असुशासनको प्रमुख स्थान प्राप्त है । अनुशासन जायनको कलापूर्ण, शान्त और गतिशील बनाता है । इसके द्वारा परिवार और समाजकी अव्यवस्थाएं दूर होती हैं। 1 पारिवारिक चेतनाका सम्यक विकास, अहिंसा, करुणा, समर्पण, सेवा, प्रेम, सहिष्णुता आदिके द्वारा होता है । मनुष्य जन्म लेते हो पारिवारिक एव सामाजिक कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व से बंध जाता है। प्राणीमात्र एक दूसरेसे उपकृत होता है । उसका आधार और आश्रय प्राप्त करता है । जब हम किसीका उपकार स्वीकार करते हैं, तो उसे चुकानेका दायित्व भी हमारे ही ऊपर रहता है | यह आदान-प्रदानको सहजवृत्ति हो मनुष्यको पारिवारिकता और सामाजिकताका मूलकेन्द्र है। उसके समस्त कर्त्तव्यों एव धर्माचरणोंका आधार है । राग और मोह आत्मा के लिए व्याज्य हैं, पर परिवार और समाज संचालनके लिए इनकी उपयोगिता है । जीवन सर्वथा पलायनवादी नहीं है। जो कर्मठ बनकर श्रावकाचारका अनुष्ठान करना चाहता है उसे अहिंसा, सत्य, करुणा ५६८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा ! L
SR No.090507
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size14 MB
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