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सेवा समपंण आदिके द्वारा परिवार और समाजको दढ़ करना चाहिए। यह दृढीकरणको क्रिया दी गपित्रों या नही है। समाजगठनको आधारभूत भावनाएं
समाज-गठन के लिए कुछ मौलिक सूत्र हैं, जिन सूत्रोंके आधारपर समाज एकरूपमें बंधता है । कुछ ऐसे सामान्य नियम या सिद्धान्त हैं, जो सामाजिकताका सहजमें विकास करते हैं। संवेदनशील मानव समाजके बीच रहकर इन नियमोंके आधारपर अपने जीवनको सुन्दर, सरल, नम्र और उत्तरदायी बनाता है । मानव-जीवनका सर्वांगीण विकास अपेक्षित है । एकांगरूपसे किया गया विकास जीवनको सुन्दर, शिव और सत्य नहीं बनाता है। कर्मके साथ मनका सुन्दर होना और मनके साथ वाणीका मधुर होना विकासको सीढ़ी है। जीवनमें धर्म और सत्य ऐसे तत्व है, जो उसे शाश्वतरूप प्रदान करते हैं। समाज-संगठनके लिए निम्नलिखित चार भावनाएं आवश्यक है:
१. मैत्री भावना। २. प्रमोद भावना । ३. कारुण्य भावना। ४. माध्यस्थ्य भावना।
मैत्री भावना मनको वृत्तियोंको अत्यधिक उदात्त बनाती है। यह प्रत्येक प्राणीके साथ मित्रताकी कल्पना ही नहीं, अपितु सच्ची अनुभूतिके साथ एकात्मभाव या तादात्मभाव समाजके साथ उत्पन्न करती है। मनुष्यका हृदय अब मैत्रीभावनासे सुसंस्कृत हो जाता है, तो अहिंसा और सत्यके वीरुध स्वयं उत्पन्न हो जाते हैं । और आत्माका विस्तार होने से समाज स्वर्गका नन्दन-कानन बन जाता है। जिस प्रकार मित्रके घरमें हम और मित्र हमारे घरमें निर्भय और निःकोच स्नेह एवं सद्भावपूर्ण व्यवहार कर सकता है उसी प्रकार यह समस्त विश्व भी हमें मित्रके घरके रूपमें दिखलाई पड़ता है। कहीं भय, संकोच एवं आतंककी वृत्ति नहीं रहतो । कितनी सुखद और उदात्त भावना है यह मैत्रीकी । व्यक्ति, परिवार और समाज तथा राष्ट्र को सुगठित करनेका एकमात्र साधन यह मंत्री-भावना है।
इस भावनाके विकसित होते हो पारस्परिक सौहार्द, विश्वास, प्रेम, श्रद्धा एवं निष्ठाको उत्पत्ति हो जाती है। चोरी, धोखाधड़ी लट-खसोट, आदि सभी विभीषिकाएं समाप्त हो जाती हैं। विश्वके सभी प्राणियोंके प्रति मित्रताका भाव जागृत हो जाय तो परिवार और समाजगठनमें किसी भी प्रकारका दुराव
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : ५६९