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श्रेणिक राजगृह छोड़कर नन्दग्राम पहुँचा और यहाँ अपनी विद्या-बुद्धिके प्रभावसे आजीविका अर्जित करने लगा। इसकी विद्वत्ता और प्रतिभासे सोमशर्मा ब्राह्मणकी पुत्री नन्दश्री अत्यन्त माकृष्ट हुईं और श्रेणिकके साथ पाणिग्रहण करनेका अभि
श्रेणिकका विवाह नन्दीके साथ सम्पन्न हो गया और इसीसे अभयकुमार नामक बुद्धिमान् पुत्र उत्पन्न हुआ। इस नगर में श्रेणिकने राजा वसुपालके हाथीको निर्मदकर वशमें किया, जिससे राजा अत्यधिक प्रसन्न हुबा । श्रेणिकके परामर्शसे राजाने सात दिनों तक अहिंसा धर्मके पालन करनेकी घोषणा की और हिंसाको बन्द कर दिया ।
उपश्रेणिने अपने संकल्पानुसार चिलातीपुत्रको मगधका शासक नियत किया, पर चिलातीपुत्र अपनी योग्यताओं और असमर्थताओंके कारण राज्यसंचालन में असमर्थ रहा। उपश्रेणिककी मृत्युके अनन्तर चिलातीपुत्रने प्रजापर अत्याचार करना आरम्भ किया, जिससे प्रजा " त्राहि', 'त्राहि करने लगी । मन्त्रियोंने राज्यकी दुरवस्थापर विचार किया और निश्चय किया कि चिलातीपुत्रसे राज्य नहीं चल सकता है। अतएव श्रेणिक की तलाश करनी चाहिए। शिशुनागवंशमें श्रेणिक बिम्बसार ही ऐसा योग्य व्यक्ति है, जो मगघ - शासनको सुदृढ़ कर सकता है । फलतः श्रेणकको ढूँढ़कर मगधमें लाया गया और ई० पू० ५७९ में इसका राज्याभिषेक सम्पन्न हुआ ।
चिलातीपुत्र स्वयं ही राज्यभार छोड़कर चला गया और वैभारगिरिपर मुनियोंके निकट पहुँचा और वहाँ दिगम्बरी-दीक्षा ग्रहण कर ली। उसने घोर तपश्चरण कर सर्वार्थसिद्धि विमान प्राप्त किया ।
श्रेणिकने मगध-शासक बन राज्यका विस्तार किया और ई० पू० ५५९ में इसने अपना प्रधानमन्त्री अभयकुमारको नियत किया । केरलनरेश मृगांकने अपनी कन्या विलासवतीका विवाह श्रेणिक बिम्बसार के साथ सम्पन्न किया ।
बिम्बसारका एक अन्य विवाह वंशालीके राजा चेटककी पुत्री चेलना के साथ भी सम्पन्न हुआ, जिससे इनके धार्मिक जीवनमें आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ ।
बिम्बसार के साथ चेलनाका विवाह भी एक घटना है। कहा जाता है कि भरत नामक चित्रकार चेटककी पुत्री चेलनाका सुन्दर चित्र अंकितकर राजगृहमें उपस्थित हुआ । बिम्बसार चित्रके दर्शनमात्रसे मन्त्रमुग्ध हो, चित्राङ्कित नारी चेलनाको प्राप्त करनेके लिए उत्कंठित हो गया । बिम्बसार मगध छोड़नेके अनन्तर बौद्धधर्म में दीक्षित हो गया था और इसी धर्मका वह पक्का श्रद्धालु था । चेटकी यह् प्रतिज्ञा थी कि चह 'साधमके साथ ही अपनी कन्याका विवाह
२०६ : तार्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा