________________
उन्हें लौकिक सुखकी चाह नहीं है। उनका लाभ अनन्त कालके लिए स्थायी होता है । यह मोक्ष-सुख ही सर्वदा आनन्ददायक है। निर्ग्रन्थ अमण संवर और निर्जरा द्वारा अपने पापोंको दूर करते हैं।" ___ अजातशत्रुने उपर्युक्त धर्मामतको सुनकर अपना जन्म कृतार्थ समझा । वह जिज्ञासुके रूपमें पुनः निवेदन करने लगा-'आपका कहना यह सत्य है कि मोक्ष-सुख सर्वोत्तम सुख है, पर इस सुखका क्या स्वरूप है, कैसा है ? यह तो ज्ञात नहीं। आत्मा और मोक्ष-सुखका भी अस्तित्व कैसे जाना जा सकता है?" ___ व्यवस्था करते हुए गौतम गणधरने कहा-"राजन् मोक्षका सुख आकाशकुसुमवत् नहीं है और न था, इन्धित द्वारमा ही है । यह तो जीवन मुक्तावस्था है । निरपद और शाश्वत सुखरूप है। आत्माकी स्वतन्त्रता ही सुखदायक है और मोक्षमें यही स्वतंत्रता उपलब्ध होती है। आत्म-सुख अनुभूतिगम्य है। इसकी तुलना सासारिक सुखोंसे नहीं की जा सकती है।" इतना ही नहीं, अनेकान्तवादकी व्याख्या भी प्रस्तुत की गयीं। अजातशत्रु कुणिक इस देशनाको सुनकर प्रभावित हुआ और उसने इन्द्रभूति गौतमके निकट श्रावकके व्रत ग्रहण किये। चम्पा : अनेकबार समवशरणका सौभाग्य
चम्पा नगरीमें दूसरी बार जब भगवान् महावीरका समवशरण पहुंचा, तो उस समय जितशत्र राज्य करता था। उनका यह समवशरण पूर्णभद्र उद्यानमें स्थित हआ। समवशरणके पहंचते हो सभी दिशाओंमें तुमुल जयघोष आरम्भ हो गया | धनी-मानी राजा-महाराजाओंके साथ सामान्य और उपेक्षित जनता भी उनका धर्म श्रवण करनेके लिए पहुँचने लगी। जिसके भी कानोंमें तीर्थकर महावीरको वाणी पड़ जाती थी, वही धन्य हो जाता था। राजा जितशत्रु भी तीर्थकर महावीरको बन्दनाके लिए चल पड़ा और उनकी देशना सुनकर अत्यधिक प्रभावित हुआ । उसे अनुभव हुआ कि समाज, देश और राष्ट्र-व्यवस्थापकके रूपमें तीर्थंकर महावीरसे बढ़कर अन्य कोई व्यक्ति नहीं है । ये जन्म, जरा और मरण-रोगके चिकित्सक तो हैं ही, पर समाजमें उत्पन्न हुए अर्थजन्य वैषम्यको भी मिटानेवाले हैं। यज्ञवाद, जातिवाद, बहुदेववाद आदिको समीक्षाकर समाजको नई क्रान्ति देनेवाले हैं। इन्होंने भारतकी सांस्कृतिक विरासतको ऊर्ध्वमुखी बनानेके लिए पूरा प्रयास किया है। १. तेणं कालेणं तेणं समएणं भगवं महावीरे जाव समोसरिए । परिसा निग्गमा । कूणिए राया जहा तहा जितसत्तू निग्गच्छइ-निग्गच्छत्तिा भाव पज्जुवासइ ।
-उवासगदसाओ ( पी० एल० वद्य-सम्मादित); पृ०२५. २४६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा