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आदि मुख्य हैं। यहाँ समस्त प्रमाणाभासोंका निर्देश न कर ज्ञानमें उपयोगी होनेसे केवल हेत्वाभासों का विवेचन किया जाता है ।
हेत्वाभास
जो हेतुलक्षणसे रहित है, पर हेतु के समान प्रतोत होते हैं, वे हेत्वाभास हैं । इन्हें साधनके दोष होनेके कारण साधनाभास भी कहा जा सकता है । कुछ चिन्तकोंने असिद्ध, विरुद्ध अनेकान्तिक, कालात्यापदिष्ट और प्रकरणसम ये पाँच हेत्वाभास स्वीकार किये है । पर यथार्थतः असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक ये तीन ही हेत्वाभास प्रमुख है ।
मसिद्ध
जो हेतु सर्वदा पक्षमें न पाया जाय अथवा जिसका सर्वथा साध्यके साथ --' शब्दोऽनित्यः, चाक्षुषत्वात्' अविनाभाव न हो, वह असिद्ध हेत्वाभास है । यथा--' शब्द अनित्य है, चक्षुका विषय होनेसे । इस अनुमानमें चाक्षुषत्वहेतु शब्दमें स्वरूपसे ही असिद्ध है । असिद्ध हेत्वाभासके दो भेद हैं: - स्वरूपासिद्ध और संदिग्धासि । जो स्वरूपसे असिद्ध हो, वह स्वरूपासिद्ध है । यथा— शब्द अनित्य है, चाक्षुष होनेसे । इस अनुमानमें चाक्षुषत्वहेतु स्वरूपासिद्ध है । मूर्ख व्यक्ति घूम और वाष्पका विवेक न प्राप्तकर बटलाहीसे निकलनेवाले वाष्पको घूग मानकर उसमें अग्निका अनुमान करता है, तो यह संदिग्धासिद्ध कहलाता है ।
विरुद्ध
जो हेतु साध्याभाव में ही पाया जाता है, वह विरुद्धहेत्वाभास कहलाता है । यथा - 'सर्व क्षणिक सत्यात्' इस अनुमान में सखहेतु सर्वथा क्षणिकत्व के विपक्षी कथंचित् क्षणिकत्वमें ही पाया जाता है ।
अनैकान्तिक
जो हेतु पक्ष और विपक्ष दोनोंमें समानरूपसे पाया जाता हो, वह व्यभि चारी होने के कारण अनैकान्तिक कहलाता है । यथा - 'शब्दो: अनित्यः प्रमेयत्वात् घटवत्' । यहाँ प्रमेयत्वहेतुका विपक्षभूत नित्य आकाशमें भी पाया आना निश्चित है । अतः यह अनेकान्तिक है ।
अकिंचित्कर
सिद्ध साध्य में और प्रत्यक्षादि बाधित साध्य में प्रयुक्त होनेवाला हेतु अकि४५४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा