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१. नामनिक्षेप
द्रव्य, गुण, क्रिया आदि निमित्तोंको अपेक्षा न कर लोक-व्यवहारके लिये वक्ताको इच्छासे जो नामकरण किया जाता है, उसे नामनिक्षेप कहते हैं। यथा-एक ऐसा व्यक्ति है, जिसमें पुजारीका एक भो गुण नहीं, पर किसोने उसका नाम पुजारी रख दिया है अतः वह पुजारी कहलाता है। नामनिक्षेपमें वस्तुके गुणधर्मपर विचार नहीं किया जाता, केवल लोक-व्यवहारको सुविधाके लिये शब्द रुढ़ कर लिया जाता है। दूसरा उदाहरण राजाका लिया जा सकता है किसीने अपने पुत्रका नाम राजा रख लिया है, पर वस्तुतः राजाका उसमें कोई गुण नहीं है। यह नाम लांक-व्यवहार चलाने के लिये ही रखा गया है । २. स्थापना-निक्षेप
किसी वस्तुमें अन्य वस्तुको स्थापना करनेको स्थापना-निक्षेप कहते हैं। स्थापना निक्षेपके दो भेद हैं :-(१) तदाकार या सद्भावनानिक्षेप और (२) अतदाकार या असद्भावना-निक्षेप । पायाण या धातुके बने हुए तदाकार प्रतिबिम्बमें ऋषभनाथ या पाश्वनाथकी स्थापना करना तदाकार स्थापना-निक्षेप है। जो मुख्य वस्तुका दर्शन करना चाहता है उसे उसकी प्रतिमाको देखकर उसमें उसको बुद्धि होती है, क्योंकि दोनोंमें कयन्चित् समानता पायी जाती है। ऋषभदेवकी स्थापना उनकी प्रतिकृतिरूप प्रतिमामें की जाती है तो दर्शकको उस प्रतिमा यह आदितीर्थकर हैं ऐसी बुद्धि होती है ।
मुख्य वस्तुके आकारसे शून्य वस्तुमात्रको अतदाकार-स्थापना कहते हैं। यथा-शतरंजके मोहरोंमें दूसरेके कथानानुसार हो राजा, मंत्रो, घोड़ा, हाथी इत्यादिका बोध होता है। यों तो उन मोहरोंका आकार न राजाका है, न मंत्रीका है, न हाथीका है और न घोड़ेका है । पर व्यवहार चलाने के लिये इसप्रकारको स्थापना की गई है।
मामनिक्षेप और स्थापना-निक्षेपमें अन्तर-स्थापना-निक्षेपमें तो मनुष्य आदरभाव और अनुग्रहको इच्छा करता है पर नामनिक्षेपमें नहीं। ऋषभदेवकी प्रतिमामें व्यक्ति तीर्थंकर ऋषभदेव जैसा आदरभाव करता है, उसकी पूजा करता है और दर्शन एवं पूजन द्वारा आत्म-विशुद्धि भी प्राप्त करता है। किन्तु ऋषभदेव नामके व्यक्तिमें न तो वैसा आदरभाव ही होता है और न उस व्यक्तिसे आत्मविशुद्धिको प्रेरणा ही प्राप्त होती है । संक्षेपमें नाम तो लोकव्यवहारके चलानेके लिये है पर स्थापनानिक्षेप आत्म-प्रेरणा और आत्मविशुद्धिके लिये है।
पीकर महानीर और उनकी देशना : ४.३