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निर्ग्रन्थ बनकर आत्माका विकास करना चाहता था, वह मुनि-संघका सदस्य बनता और जो घरमें रहकर श्रावकके व्रतोंका आचरण करते हुए आत्मोत्थान करना चाहता था, उसके लिये श्रावक और श्राविका संघकी व्यवस्था थी। तीर्थंकर महावीरके यहाँ जाति और वर्ण व्यवस्था नहीं थी कि भार संघ व्यवस्था थी। जैन मुनियोंके आधार के नियम कठोर थे और वे उन नियमोंका आचरणकर आत्माके ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि गुणोंका विकास करते थे । केवली महावीरके संघमें पूर्वधारी ३००, शिक्षक ९९००, अवधिज्ञानी १३००, सर्वऋषिसंख्या ७००, विक्रियाधारी ९००, मन:पर्ययज्ञानी ५००, वादी ४००, १४००० आर्यिका ३६०००, श्रावक १००००० ओर श्राविकाएँ ३००००० थीं । प्रधान लोता — श्रेणिक : समवशरणको शरण
पर
काललब्धि प्राप्त होनेपर मिध्यादृष्टि सहज में ही सम्यग्दृष्टि बन जाता है । श्रेणिक बिम्बसार जैनधर्मका विरोधी था, निग्रन्थ साधुओं की निन्दा और अवमानना करता था । बौद्धधर्मके प्रति उसके हृदयमें अटल श्रद्धा थी, महारानी चेलनाने अपने चातुयंसे उसे महावीरका भक एवं अनुयायी बना दिया । उसकी समस्त अशुभवृत्तियाँ शुभवृत्तियोंके रूपमें परिवर्तित हो गयीं । भौतिकतामें भटकता हुआ उसका मन शान्त हो गया। तीव्र पापाचरणसे बांधी यी सप्तम नरककी आयु खण्डित होने लगी और वह प्रथम नरकको जघन्य आयुके रूपमें परिणत हो गयी । सत्य है कि जीवनमें जब आध्यात्मिक जागृति होती है, तो सभी शुभोपलब्धियां स्वयमेव प्राप्त हो जाती है। एक क्षणके लिए प्राप्त की गयी आध्यात्मिक जागृति भी अनेक जन्मोंको मंगलमय बना देती है । श्रेणिका मोह भंग हुआ और उसकी जीवनधारा परिवर्तित हो गयी। महावीरके समवशरणकी शरणने उसे भावी तीर्थंकर बना दिया |
१. शतानि त्रीणि पूर्वाणां धारिणः शिक्षकाः परे । शुम्यद्वितयरन्धादिरन्त्रोक्ताः सत्यसंयमः ॥ सहस्रमेकं त्रिज्ञान लोचना स्त्रिशताधिकम् । पञ्चमावगमाः समतानि परमेष्ठिनः ॥ शतानि नयविज्ञेया विक्रमविवदिताः । चतुर्दशसहस्राणि पिण्डिताः स्युर्मुनीश्वराः ॥ चन्दनाद्यायिकाः शून्यत्रय वह्निसम्मिताः । भावका लक्षमेकं तु त्रिगुणाः श्राविकास्ततः ॥
- उत्तरपुराण ७४ ३७५-३७९ तिलो० ० ४।११६६-११७६ः
हरि० पु० ६०/४३२-४४०
सीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : २०३