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तीर्थंकर महावीरकी वाणीकी व्याख्या करते हुए इन्द्रभूति गणधर कहने लगे — "गौतमबुद्धके बचन मनको लुभानेवाले इन्द्रायण फलके समान सुन्दर है । पर तुम तो कर्म सिद्धान्तके श्रद्धालु हो। तुम्हें अक्रियावादी गौतमके मतसे क्या प्रयोजन ? मुग्ध लिच्छवी कुमार इस भेदको नहीं जानते, जो कर्मों के फलको भोगनेवाली आत्मा के अस्तित्वको भी स्पष्टतः स्वीकार नहीं करते । वे पुनजन्म और कर्मफलकी व्यवस्था स्वीकार करने में असमर्थ है। जिसे ग्रा
त्वमें विश्वास है, वही हिंसाका त्यागी हो सकता है । सहृदय व्यक्ति कभी किसीके प्राणों का बध नहीं कर सकता । अतएव द्रव्यहिंसा और भावहिंसा के स्वरूपको ज्ञात कर हो व्यक्ति अहिंसा धर्मका पालन कर सकता है। जो प्रमादवश क्रोध, मान, माया, लोभके वशीभूत है, वह प्राणिवध न करनेपर भी हिसाका भागी है । इन्द्रभूति गणधरने संकल्पो, आरम्भी, उद्योगी और विरोधी हिसाबका स्वरूप सेनापति सिंहद्रको बतलाया। साथ ही यह भी कहा कि देशरक्षाके हेतु प्राणियों का वध भी हिंसा के अन्तर्गत नहीं है । जो भावहिंसक है, वह द्रव्यहिंसा न करनेपर भी हिंसाका पातकी बनता है । भावोंकी पवित्रता और लोकोपकारिताकी वृत्ति अहिंसा में सम्मिलित हैं । जो संग्राम स्वार्थ, द्वेष, लोभ और अहंकारवश किया जाता है, वह संग्राम अहिंसा धर्म की दृष्टिसे वर्जित है, पर देशोत्थानकी कामनाकी दृष्टिसे किया जानेवाला संग्राम अहिंसा धर्म में बाधक नहीं है ।" सिंह सेनापति तीर्थंकर महावीरके समवशरण में इन्द्रभूति गणधरके वचनोंसे अधिक प्रभावित हुए और उन्होंने श्रावक के व्रत स्वीकार किये |
बाणिज्यग्राम जितशत्रुका नमन
वैशालीके निकट ही वाणिज्यग्राम अवस्थित था। तीर्थंकर महावीरका समवशरण यहाँ भी आया । जितशत्रु राजा उनकी वन्दनांके लिये चला | वह महावीरकी दिव्यध्वनिको सुनकर बहुत प्रभावित हुआ तथा उनका मत बन
गया' |
पोलासपुर : विजयलेन और सद्दालपुत्रका मोहभंग
उत्तर भारतका यह भी एक प्रसिद्ध नगर है । इस नगर के बाहर सहस्रान नामक उद्यान था । यहाँके राजाका नाम विजयसेन था। राजा विनय और श्रीदेवीके पुत्र अतिमुक्तक राजकुमारने बाल्यावस्थामें हो मुनिदीक्षा ग्रहण
१. वाणियगामे नयरे जियसत्तू नामं शया होत्या- उषासगदाओ ( पी० एल० वैद्य सम्पादित), पृ० ४.
२४४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा