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परम्पत : अन्तिम सानहासीर
तीर्थकर पाश्वनायके २५० वर्ष पश्चात् प्रगतिशील परम्पराके संस्थापक २४वें तीर्थकर महावीर हुए। इन्होंने अपनी व्रत-सम्बन्धी प्रगतिशील क्रान्ति के द्वारा जैनधर्मको युगानुकूल रूप दिया । सीयंकरोंकी यह परम्परा वैज्ञानिक दृष्टिसे सत्यका अन्वेषण करनेवाली एक प्रमुख परम्परा रही है । निश्चय ही महावीर धर्म प्रवर्तक ही नहीं, अपितु महान लोकनायक, धर्मनायक, क्रांतिकारो सुधारक, सबवे पथप्रदर्शक और विश्ववन्धुत्वके प्रतीक थे। उनमें अलौकिक साहस, सुमेरु तुस्प अविचल दृढ़ता, सागरोपम गम्भीरता एवं अद्भुत सहनशीलता विद्यमान पी। उन्होंने रूढ़िवाद, पाखण्ड, मिथ्याभिमान और वर्णभेदके अंधकारपूर्ण गम्भोर गर्तमें गिरती हुई मानवताको उठानेमें अथक प्रयास किया । उनके कैवल्यालोकसे मानव-हृदयोंका अज्ञान रूपी अंधकार छिन्न हो गया
और बिनाशोन्मुख मानवता को प्राण प्राप्त हुआ। __ महावीरको साधना वीतरागताकी साधना थी। उन्होंने विकृतियोंसे मुक्त होकर शुद्ध चैतन्य स्वरूप परमात्म-तत्त्वको प्राप्त किया और विश्वके समाजवाद, साम्यवाद, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहका प्रशस्त मार्ग दिखाकर अमरत्वका संदेश दिया। रूढ़िवाद और अंधविश्वासोंका विरोधकर जनसाको सही दिशामें बढ़नेका मार्ग-दर्शन किया और उन्हें शुद्ध बितन की तीनतम प्रेरणा दी। - इस प्रकार इस युग को तीर्थंकर-परम्पराको अंतिम कड़ी भगवान महावीर हैं। महावीरने जन-जोवनको तो उन्नत किया ही, साथ ही उन्होंने साधनाका ऐसा मार्ग प्रस्तुत किया, जिस मार्गपर चलकर सभी व्यक्ति सुख और शांति प्राप्त कर सकते हैं। इनका साधना-पथ न किसी गुरुसे बंधा था और न किसी शास्त्र से | यह बंधा या उनके अपने भीतरको स्वतन्त्र अनुभूतिसे । तीर्थकर पार्श्वनायकी तीर्थपरम्पराके तहते हुए घाटोंका पुनरुद्धार इन्होंने किया। श्रमणों की प्राचीन साधना श्रम, शांति और संयमकी पो । महावीरने भी इसी साधनामार्गको गतिशील बनाया। __ उनके ध्यानयोगकी साधना आत्म-साधना थी, भयसे परे थी, प्रलोभनोंसे परे और राग एवं द्वेषसे परे थी। वे नील गगनके नीचे हिन अन्सुओसे भरे निर्जन वनमें ध्यानस्थ हो दिगम्बर मुद्रामें अविचल रहकर 'स्व'को शोध करते रहे। उनके मन में कोई भी विकल्प नहीं था । वे लहर और तूफानोंसे रहित प्रशांत महासागरके समान स्थिर और निश्चल थे। मैत्री भावनाका सर्वोच्च
तीर्थकर महावीर और उनकी देशमा : २१