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अस्तित्वके कारण प्रत्येक द्रव्यकी पर्यायें अपनेसे भिन्न किसी भी सजातीय या विजातीय द्रव्यकी पर्यायोंसे असंकीर्ण बनी रहती हैं, जिससे उनका पृथक् अस्तित्व पाया जाता है । यह स्वरूपास्तित्व दो कार्य सम्पन्न करता है:
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(१) प्रत्येक ब्रव्यको इतर द्रव्योंसे व्यावृत - पृथक् करता है । (२) अपने कालक्रमसे होनेवाली पर्यायोंमें अनुगत रहता है । स्वरूपास्तित्वके कारण अपनी पर्यायों में अनुगतप्रत्यय - अनुगताकारप्रतीति, उत्पन्न होती है और इतर द्रव्योंसे व्यावृत्त प्रत्यय भी । इस स्वरूपास्तित्वको ऊर्ध्वता सामान्य और अवान्तरसत्ता भी कहा जाता है। आशय यह है कि प्रत्येक द्रव्यके जितने अखण्ड प्रदेश हैं, वह द्रव्य उतने प्रदेशोंके साथ अपनी सत्ताको दूसरे द्रव्यसे पृथक् रखता है तथा उसकी इस अवान्तर अथवा पृथक सत्ता में ही गुणपर्यायत्व या उत्पाद-व्यय- धोब्यत्व रहते हैं । जहाँ द्रव्यका अस्तित्व है, वहीं उसके गुण-पर्याय हैं और वहीं उनके उत्पाद, व्यय एवं श्रीव्य हैं। न कोई द्रव्य कभी अपनी सत्ताको छोड़ता है, न गुण-पर्यायोंको और न उत्पाद, व्यय, धौव्यको ही। यहां द्रव्य है, यही अपने क्रमिक पर्यायों द्वारा द्रवित - प्राप्त होता है !
स्वरूपास्तित्वको ही धौव्य माना जाता है। किसी एक द्रव्य के प्रतिक्षण परिणमन करते रहनेपर भी उसका किसी सजातीय या विजातीय द्रव्यान्तररूपसे परिणमन नहीं होना धौव्य है । इस स्वरूपास्तित्वके ही द्रव्य, श्रव्य अथवा गुण नामान्तर हैं। स्वरूपास्तित्व अथवा धीव्य गुणके कारण ही प्रतिक्षण पर्यायरूपसे परिवर्तन होनेपर भी उसकी अनाद्यनन्त स्वरूपस्थिति बनी रहती है और इसी कारण द्रव्यका समूलोच्छेद नहीं हो पाता । यह काल्पनिक नहीं है, परमार्थ सत्य है |
सादृश्यास्तित्व और त्रयात्मकता
नाना द्रव्योंमें अनुगत व्यवहार करनेवाला सादृश्यास्तित्व होता है । इसे तिर्यक् सामान्य या सादृश्यसामान्य कहते हैं । अनेक स्वतन्त्र सत्तावाले द्रव्यों में
नापि प्रदेशरभेदाभावाद् द्रव्येण सहेकत्वमवलम्बमानं द्रव्यस्य स्वभाव एव कथं न भवेत् । तत्तु द्रव्यान्तराणामिव द्रव्यगुणपर्यायाणां न प्रत्येकं परिसमाप्यते । यतो हि परस्परसाषित सिद्धिकत्वा तेषामस्तित्वमेकमेव, कार्तस्वरषत् ।
- प्रवचनसार, गाथा ९६ तथा अमृतचन्द्राचार्य टीका.
१. वह विविद्दलक्खणाणं लक्खणमेगं सदिति सव्वगयं । उवदिसा खलु धम्मं जिणवरवसहेज पण्णत्तं ॥ --प्रवचनसार, गाया ९७.
३२४ तीर्थंकर महावीर और उनकी जाचार्य - परम्परा